शिक्षा का नहीं, विद्या का सागर

February 1990

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एक प्रौढ़ बंगाली दुःखी स्वर में अपनी पत्नी से कह रहे थे— "कल क्या होगा?” "किस चीज का?"

“भोजन का" "नहीं मिलेगा तो पानी पीकर गुजर कर लेंगे"— पत्नी ने कहा। यह बंगाली थे— ठाकुरदास, जो दो रुपए माहवार की नौकरीकर उसी से अपने परिवार का गुजारा चलाते।

पहले उन्हें कलकत्ता की गलियों और सड़कों पर भटकना पड़ा। भोजन का प्रबंध कभी दोनों वक्त, कभी एक वक्त हो जाता। ऐसे भी कई अवसर आए, जबकि घर में किसी के मुँह में एक रोटी तो दूर, एक दाना भी नहीं पहुँच पाया। माँ व्यथित, पिता परेशान और पुत्र का अनिश्चित भविष्य।

कलकत्ते से वह मेदिनीपुर कस्बे में आ गए। वहाँ ठाकुर दास को दो रुपए महीने की नौकरी लगी। कुछ नहीं से कुछ की तो राहत थी। इसी राहत में बरसों बीत गए। एक दिन रात के समय बेटे ने अपनी माँ के पैर दबाते हुए कहा— "माँ मेरी इच्छा है कि मैं पढ़-लिखकर बहुत बड़ा विद्वान बनूँ और तुम्हारी खूब सेवा करूँ।"

“कैसी सेवा करेगा?” — बेटा पढ़ने लगा था, इसलिए कुछ मन बहलाते हुए प्रोत्साहन के स्वरों में माँ ने पूछा।

"माँ! तुमने बड़ी तकलीफ में दिन गुजारे हैं। मैं तुम्हें अच्छा खाना खिलाऊँगा और बढ़िया कपड़े लाऊँगा।" हाँ..! बेटे को जैसी कुछ याद आया— "तुम्हारे लिए गहने भी बनवाऊँगा।"

“हाँ बेटा! तू जरूर सेवा करेगा मेरी”— माँ बोली। "अच्छा बता! तूने चंडी पाठ पढ़ा है? तुझे 'स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु' वाला श्लोक याद है।"

“हाँ माँ!"— बालक ने कहा। "तो यही समझ, सारी मातृ जाति ही तकलीफ भुगत रही है"— माँ के स्वरों में पीड़ा थी।

"एक बात करना रे तू, पढ़-लिखकर पंडित मत बनना।"

“तो फिर न पढ़ूँ?" “नहीं! पढ़ तो खूब, पर शास्त्रार्थ में न उलझकर तू सेवा करना, सारी नारी जाति की तकलीफें दूर करना। पढ़कर निष्ठुर मत बनना, संवेदना जिंदा रखना”— माँ के स्वरों की पीड़ा भाँपकर बेटे की आँखें भर आईं।

बेटे ने भावाभिभूत होकर माँ के चरणों में मस्तक रख दिया। तभी से उसे धुन सवार हो गई कि माँ की तकलीफ सारी नारी जाति की तकलीफ है, इसे दूर करने के लिए कुछ भी करना पड़े, वह करेगा। खूब पढ़ा-लिखा और विद्वान बन गया तथा कई-एक महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होकर काम भी किया, जिनसे वेतन में अच्छी खासी रकम मिलती थी; पर उसे अपनी माँ की बातों का सदैव ध्यान रहा। पांडित्य के झूँठे अभिमान से दूर रहकर वह स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, जैसे अनेकों माध्यमों से नारी उत्कर्ष के लिए प्रयत्न करते रहे।

नारी जाति की तकलीफ को अपनी माँ की तकलीफ समझने वाले महामानव थे— ईश्वर चंद्र विद्यासागर, जो मजाक में कहा करते— 'मैं शिक्षा का नहीं, विद्या का सागर हूँ' और श्रुति वचन के अनुसार— 'नास्ति विद्या समं चक्षु'। जिसके पास विद्या की आँखें हैं, उसे ही मानवता की पीड़ा, समस्याएँ दिखेंगी और दूर करने में जुटेगा। जिसे ये नहीं दिख रही, इसका मतलब उसके पास विद्या की आँखें नहीं हैं। उनके इस कथन से हम स्वयं की स्थिति पहिचानें। यदि आँख वाले हैं तो समय को पहचान कर सक्रिय हों।"


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