दादू तब संत नहीं, दुकानदारी का काम करते थे। पानी बरस रहा था। अवसर पाकर वे हिसाब-किताब लिखने में व्यस्त हो गए।
उनके गुरु आए। शिष्य व्यस्त था और अलग से बैठने की जगह न थी, सो बाहर मूसलाधार बारिश में खड़े भीगते रहे।
दादू का ध्यान हटा तो उन्हें गुरुदेव को इस प्रकार खड़े देखकर बड़ी लज्जा आई और ध्यान न दे सकने के लिए क्षमा माँगते हुए उन्हें ऊपर लाए।
गुरुदेव ने हँसते हुए कहा— "बेटा! मैं तो थोड़ी ही देर तक इंतजार करता रहा; पर भगवान तो आरंभ से ही प्रतीक्षा कर रहा है कि कब दादू मेरी ओर ध्यान दे और अंदर बुलाए।”
वे वचन उनके हृदय में बैठ गए और दुकानदारी छोड़कर संत जीवन अपना लिया।