स्नेह की स्याही, सद्गुणों की इबादत

February 1990

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एक प्रौढ़वय के व्यक्ति ने बड़ी मेज के दूसरी ओर बैठे प्रबंध समिति के सदस्यों में से एक को टाइप किया हुआ फुलस्केप कागज थमा दिया। कागज को पढ़ते ही उसके हाथ काँप उठे, लगा कि कागज की जगह साँप पकड़ा दिया हो। उसने धीरे से दूसरे को दिया। एक-एक करके सभी ने पढ़ा। सभी अवाक और सन्न थे।

गले से मुश्किल से थूक गटकते हुए एक ने पूछा— "यह क्या है?"

"इस्तीफा आपने पढ़ लिया होगा।" "पर क्यों? क्या हम लोगों के व्यवहार से कोई नाराजगी हुई? किसी अन्य से कोई अपराध बन पड़ा?"

"नहीं! आप सभी के मृदुल व्यवहार का मैं बहुत कृतज्ञ हूँ, सहयोगी-सहकर्मियों से भी सम्मान ही मिला है।" "फिर क्यों? जबकि लोग नौकरियों के लिए दर-बदर भटक रहे हैं, आप एक जाने-माने पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के प्रिंसिपल पद को ठुकरा रहे हैं, क्या कोई इससे अच्छी जगह मिल रही है।"

“शायद", सुनने वालों के मनों का उफान शांत होने लगा। अधिक धनवाली जगह पाने पर कम धनवाली जगह को छोड़ देना ही ठीक है। सोच-विचार चल ही रहा था, कि एक ने पूछा— "कौन से पद स्वीकार कर रहे हैं?" “लोकसेवी का पद जो सभी पदों से श्रेष्ठ है।”

सुनकर सभी जैसे आसमान से नीचे जमीन पर धम से गिर पड़े।

सभी के आश्चर्य को भाँपकर उसने कहना शुरू किया— ऐसे समय में जबकि देश और समाज का भाग्य नए कागज, नई कलम और स्याही से लिखा जा रहा है। इस विलक्षण समय में जो चूक जाए, उससे बड़ा अभागा भला दूसरा कौन है? युगपुरुष मानवीय पीड़ा से बिलख रहा है। रो-रोकर अपनी झोली सबके सामने फैला रहा है। दर-दर भटकते हुए चिल्ला रहा है। "ओ धनवालो! मुझे भी अपने धन का थोड़ा हिस्सा दो, अरे मनुष्यो! अपने अमूल्य समय का थोड़ा हिस्सा हमें भी दो। धन और समय, साधन और प्राण मिलकर ही साध्य की प्राप्ति कराएँगे।“ "ओह!"— सुनने वाले चकित थे; पर एक ने हिचकिचाते-सकुचाते हुए कहा— संकोच भापकर उसने कहा— "कहिए-कहिए?" "धन का थोड़ा हिस्सा, समय का कुछ भाग तो आप नौकरी करते हुए भी दे सकते हैं।"

"आह! आपने उसकी पीड़ा पहचानी नहीं। जो हरिश्चंद्र का नाटक देखकर राष्ट्र के लिए बिक गया। स्वयं को बेचा, परिवार को बेचा, छटपटाहट, अकुलाहट, बेचैनी को आपने पहचाना नहीं। काश! कर सके होते। मैंने अभी तक की कमाई और स्वयं अपने को उसके चरणों में अर्पित करने की शपथ ली है। अब से मेरी सामर्थ्य का कण-कण, समय का क्षण-क्षण, समाज के लिए उस महामानव के इशारे के अनुरूप खर्च होगा? क्या यह कोरी भावुकता नहीं है?"

"भावुकता विवेकहीनता की निशानी है, स्वार्थों के लिए मन में उठी बेचैनी का नाम भावुकता है। यह तो मनुष्यता की कसौटी है। जिस पर मैं अपने को खरा साबित कर रहा हूँ। जो न कर सका, समझना चाहिए वह मनुष्य नहीं। मानवीय भावनाओं से शून्य चलता-फिरता पुतला भर है।"

सुनकर सभी अभिभूत थे। "हम सभी क्षमा चाहते हैं वास्वानी जी। आपका यह त्याग हम सभी के लिए गर्व की बात है। आज से हम लोग भी अपने धन और समय को यथाशक्ति समाज के लिए लगाएँगे।"

समाज के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले ये महामानव थे— थापरदास लीलाराम वास्वानी। जो अपनी सेवापरायणता, कर्मठता के कारण बाद में साधु वास्वनी के नाम से जाने गए। इनका जन्म सिंध प्रांत के हैदराबाद जिले में 24 नवंबर 1879 ई. को हुआ। गरीबी पितृविछोह के बाद भी उन्होंने एम. ए. (दर्शन) में सर्वोच्च स्थान हासिल किया। बाद में लाहौर कॉलेज में प्रोफेसर और प्रिंसिपल हुए।

उन दिनों देश में आमूलचूल परिवर्तन के लिए गाँधी संव्याप्त बवंडर और तूफान का संचालन कर रहे थे। सारे देश के युवक, प्रौढ़, महिलाओं को रह-रहकर झकझोर रहे थे।"अरे नींद छोड़ो! उठ खड़े हो! समय तुम्हारे लिए रुकने वाला नहीं हैं। जो समय को पहचानते है, साथ चलते हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं। इस पुकार ने वास्वानी को हिलाकर रख दिया। उनके सामने दुख-दैन्य की पीड़ा से कराहते, भारत का चित्र घूम गया। उनके भीतर बैठे आत्मदेवता ने उनको धिक्कारना शुरू किया। "अरे! तुम शिक्षक हो? मानवीय भावनाओं का गला घोटने वाले! किस आधार पर तुम अपने को शिक्षक कहते हो? शिक्षक, वह भी दर्शन का, चैन की नींद सोए, इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी।"

"नहीं! अब अधिक नहीं"— वह चीख पड़े। पश्चाताप के आँसू बह निकले, अंतरात्मा बिलख उठी और वह कह उठे 'अब लौं नसानी अब न सैहों'। इसी का परिणाम था— इस्तीफा, समाज को अपना सर्वस्व अर्पित करने का संकल्प।

फिर क्या करें? गाँधी ने सुझाया तुम नए समाज के लिए नए आदमी गढ़ो। उन्होंने मीरा शिक्षण संस्था की स्थापना की। इस संस्था की शाखाएँ सारे सिंध प्रांत में फैल गई। विभाजन के बाद वह बंबई आ गए। बाद में पूना में मीरा शिक्षण संस्था का काम शुरू किया। क्या काम? काम एक ही था— आदमी गढ़ना। अपनी निजी जिंदगी के छोटे-छोटे कामों को भी वह इतनी तन्मयता और प्रभावशाली ढंग से करते कि देखने वाले अभिभूत हुए बिना न रहते। आचरण की मुखरता दूर-दूर तक फैले, इसके लिए उन्होंने लेखनी और वाणी का सहारा लिया। “मीरा” नाम की एक पत्रिका निकाली जो अपने समय में बड़ी लोकप्रिय हुई।

एक बार किसी ने उनसे पूछा— "आप बार-बार आदमी गढ़ने की बात करते हैं, कैसे गढ़े जाएँ आदमी?"

प्रश्न के उत्तर में उन्होंने प्रश्न किया— "तुमने रबड़ की मुहर देखी है?" “हाँ!" “कैसे बनती है”?

"रबड़ को गर्माकर उसके ऊपर वाँछित अक्षर काटे जाते हैं?" "फिर?"

"फिर क्या?" "उसमें स्याही लगाकर कहीं भी चिपकाओ, वही इबारत उभर आती है।"

"बस तो जान लो, यही है आदमी गढ़ने का तरीका।" एक-एक करके मानवी सद्गुणों को अपने चिंतन, चरित्र, व्यवहार में उभारना पड़ेगा। ये यों ही नहीं उभरेंगे। कष्ट सहना होगा। तितिक्षा सहनी होगी, इसी का दूसरा नाम तप है। जब स्वयं सारे सद्गुण अच्छी तरह खूबसूरत ढंग से उभर आए तो दूसरे के पास जाओ। इस अवसर पर स्याही का काम करेगा— स्नेह-आत्मीयता, इसके बिना कुछ संभव नहीं। स्नेह की स्याही जितनी अच्छी होगी, सद्गुणों की इबारत उतनी साफ होगी। दूसरों में अल्प प्रयास से वही सद्गुण साफ-साफ उभरेंगे यही है— आदमी गढ़ने का तरीका।

सुनने वाले की शंका का समाधान हुआ। वह जीवन भर अपने इन्हीं प्रयासों में लगे रहे। अपने समय में उन्होंने राष्ट्र को अनेकों लोकसेवी दिए। गाँधी जी मजाक में कहा करते— "वास्वानी जी हमारी लिए रुपया छापने की मशीन हैं। सचमुच वह मशीन थे, जो सौ फीसदी खरे आदमी निकालते।" 16 जनवरी 1966 में अपने इस काम को अधूरा छोड़कर वे चले गए; पर इस आशा के साथ कि उनकी जिम्मेदारी को सभी भारतवासी निभाएँगे। समाज की सामयिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व होम देंगे।


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