जाग्रत संकल्पशक्ति— एक विभूति

February 1990

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अस्पताल की शैया पर लेटी वह कुछ पढ़ रही थी। पढ़ते-पढ़ते अचानक उसकी आँखें चमक उठीं, चेहरा खिल उठा। मुख से अस्फुट स्वर निकले— "एकदम सही।" पास बैठी माँ ने पूछा— “क्या है बेटी?” “माँ! इसमें एक आश्चर्यजनक वाक्य लिखा है।”

“क्या?”

“अभी भी तुममें ऐसा कुछ है, जिसको पोषण देकर न केवल तुम स्वयं प्रसन्न रह सकती हो; वरन औरों को भी प्रसन्नता बाँट सकती हो।”

"जरूर होगा”— माँ का निराश स्वर था। पास खड़ी दूसरी महिला ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा— "कल्पना की उड़ान भले उड़ लो, नहीं तो अब क्या बचा है? टूटी हुई टाँगें, टूटी हुई रीढ़।" यही न बात सही थी, उसकी टाँगें बेकार हो चुकी थीं, रीढ़ की हड्डी भी जख्मी थी। “तो क्या यही सब कुछ है।” "नहीं-नहीं!" "शरीर सब कुछ नहीं हो सकता; इसकी संचालक संज्ञा इसकी अपेक्षा कहीं अधिक सामर्थ्यवान है।”— मन ने कायरतापूर्ण विचारों को झटक दिया।

अस्पताल से छुट्टी मिली। घर पहुँचने पर कोई संवेदना व्यक्त कर रहा था। कुछ अपंग हालत पर अफसोस प्रकट कर रहे थे। इन सभी के स्वरों में कहीं आशा-उत्साह नजर नहीं आ रहा है।

"तो क्या?" तभी उसे इंजील की बात याद आई— “उनकी बातों पर ध्यान मत दो, जो स्वयं के अंदर विद्यमान ईश्वर के राज्य की अवहेलना कर रहे हैं। सामर्थ्य का स्रोत अंदर है।”

विश्वास की दृढ़ता से उसे अनुभव होने लगा था कि सचमुच अभी ऐसा कुछ है, जिसके आधार पर प्रसन्न रह सकती है, यह है मनोबल।

पर दूसरों के किस काम आ सकेगी? इसी सोच में दिन बीत रहे थे कि एक दिन दूरदर्शन प्रासारिका के स्थान की रिक्ति का समाचार मिला। आवेदन किया, बुलावा आया। चयनकर्त्ता भी उसे देखकर चकित थे। "क्या कर सकेगी यह लड़की?" किंतु उसकी आवाज की मधुरता और आत्मबल की दृढ़ता के सामने उनको घुटने टेकने पड़े।

अब उसका उद्देश्य था, जन-जन में जीवन के प्रति खोए विश्वास को जगाना। पहली बार जब उसने टेलीविजन के सामने अपनी जीवन कहानी बताई तो लोग अभिभूत हो उठे; रो पड़े।

क्या इस हालत में भी जीवन के प्रति इतना अटूट विश्वास बरकरार रह सकता है? हाँ! अवश्य; पर विश्वास, मनोबल, उत्साह, आत्मविश्वास सभी कुछ तभी संभव हो सकता है, जब आप सद्विचारों को अपना आत्मीय माने। वह सबसे कहती— "मेरा अपना निजी अनुभव है, जब अपने आत्मीय सघन हितैषी कहे जाने वाले व्यक्ति साथ छोड़ देते हैं, निराशाजनक बातें करने लगते हैं। उस समय भी एक आत्मीय रह जाता है, वह है— सद्विचारों का प्राणपुंज, जो नवचेतना प्रदान करता और मनोबल को वज्रवत बनाए रखता है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?"

सभी ने न केवल उसकी बात मानी, बल्कि उसे अपने जीवन की प्रखर-प्रेरणा के रूप में स्वीकार किया।

दीप से दीप जलते हैं। विश्वास से विश्वास जगता है। मनोबल से मनोबल पनपता है। अनेकों में जीवन के प्रति खोया विश्वास वापस लाने वाली, मनोबल उमगाने वाली, प्रकाश फैलाने वाली यह नवयुवती है— जर्मन दूरदर्शन की उद्घोषिका कु. पेट्राक्रान्स। जो स्वयं अपंग, विकलांग होते हुए भी सद्विचारों को अपना आत्मीय बनाकर स्वयं प्रसन्न बनी, औरों में उसने प्रसन्नता बिखेरी। सैकड़ों पत्रों द्वारा जनसमूह इनके कार्यक्रमों के लिए लालायित रहता है, ताकि कुछ और सीख सकें। वह इतनी लोकप्रिय है कि एक दिन भी कार्यक्रम में न दिखाई पड़े तो पत्रों का अंबार जर्मन टीवी केंद्र पर लग जाता है। इसे कहते हैं— मनोबलजन्य वह आत्मीयता, जो लोगों को अपना बनाकर व्यक्ति को लोक-सम्मान का जन-अभिनंदन का पात्र बना देती है।




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