विज्ञान और दर्शन विश्व-ब्रह्मांड की दो सर्वश्रेष्ठ शक्तियाँ है। समर्थता की दृष्टि से स्रष्टा के पश्चात इन्हीं का नंबर आता है। यही दोनों शक्तियाँ अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार मानव समुदाय को अपने-अपने ढंग से परिचालित कर रही हैं। इसमें भी प्रकृति मूलक प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित विज्ञान, परोक्ष ज्ञान एवं अनुभवों पर टिके हुए दर्शन पर आज हावी हो गया है। जो चीज प्रत्यक्ष फलदाई हो, आकर्षणों, संपन्नताओं से परिपूर्ण हो, मानवी अभिरुचि का उस ओर झुक जाना स्वाभाविक है।
इस तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए विख्यात रसायनवेत्ता डॉ. इनो वोल्यूइस कहते हैं कि जीव विज्ञान, गणित, भौतिकी, रासायनिकी, इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी आदि की बहुमुखी उपलब्धियों से आज का मानव जितना समृद्ध है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। परंतु समृद्धि एवं समर्थता की अंधी दौड़ में जिस महत्त्वपूर्ण पक्ष की अवहेलना हुई, वह है स्वयं के जीवन लक्ष्य को समझना और उसे प्राप्त करना तथा अपने रचयिता की इच्छा-आकांक्षाओं की पूर्ति करना। इस उपेक्षा का ही परिणाम है कि हमारी प्रगति एकांगी रह गई और वैज्ञानिक निर्माण का विवेक समस्त सदुपयोग नहीं बन पड़ा।
मनीषीगणों के अनुसार— विज्ञान मात्र प्राकृतिक नियमों, उसके रहस्यों के उद्घाटन तक सीमित नहीं है। उसका विस्तार क्षेत्र व्यापक एवं बहु आयामी है। प्रयोगशालाओं में प्रयोग-परीक्षणों, उत्पादन, सुविधा-संवर्द्धन तक सीमाबद्ध न होकर, वह प्रकृति के साथ उसके निर्माता के संबंध में जानने की ओर भी इंगित करता है। यह विज्ञान का उच्चस्तरीय एवं उज्ज्वल पक्ष है, जो वैज्ञानिक को स्वयं अपने अंतराल के प्रविष्ट करने और उस उपलब्धि के साथ भौतिक उपलब्धियों का तालमेल बिठाने की कला सिखाता है। इसे दर्शन या अध्यात्म भी कह सकते हैं। इस कला से अनभिज्ञ होने के कारण विज्ञान की अपूर्व शक्ति हाथ लग जाने पर भी हम आज न केवल सुख-शांति से वंचित रह गए, वरन तद्जन्य विध्वंसकारी अणु-आयुधों के निर्माण से स्वयं का सर्वनाश करने पर भी तुल गए हैं।
न्यूटन, प्रीस्टले, डॉल्टन एवं मेन्डेलीफ से लेकर रदरफोर्ड, चाडविक, हाइजेनबर्ग, प्लाक एवं आइन्स्टीन तक विज्ञान-जगत के कीर्तिस्तंभों की अपनी कथा-गाथा है तो सुकरात, प्लेटो और अरस्तू से लेकर आधुनिक दार्शनिकों, अध्यात्मवेत्ताओं की अपनी। यह दोनों वर्ग यह दर्शाते हैं कि आरंभ से ही मनुष्य दो जगतों, दो शक्तियों के मध्य बँटा रहा। इससे जहाँ एक वर्ग पदार्थ-जगत को ही सब कुछ मान बैठा और की उधेड़ बुन में लग गया, वही दूसरा वर्ग अध्यात्म दर्शन की रहस्यमयी दुनिया में विचरण करता रहा। विभाजन की यही रेखा 17वीं शताब्दी के पश्चात और भी अधिक गहरी होती गई। 20वीं सदी आते-आते विज्ञान इतना अधिक उन्नत हो गया कि आध्यात्मिक मूल्यों में से अधिकांश को हम भूल गए और अब वह समय भी आ धमका जब यह कहा जाने लगा कि जो चीज वैज्ञानिक तरीके से तर्क-तथ्य के आधार पर, प्रयोगशालाओं में परीक्षणों के आधार पर सिद्ध हो सके, उसके मानने में कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। बुद्धवादियों को यह तर्क अच्छा भी लगा और उनने यह कहना आरंभ कर दिया कि जिनका विश्वास दर्शन में, दैववाद में है, उन्हें छूट है कि वे उन पर विश्वास करें, उसे मानें परंतु वे अपनी मान्यताओं से सहमत होने के लिए दूसरों को बाध्य नहीं कर सकते हैं। यही वह पाश्चात्य हवा है, जिसमें आज का मानव श्वास ले रहा है।
वस्तुतः मनुष्य ने विज्ञान को इसलिए इतनी जल्दी स्वीकार कर लिया कि वह स्वयं पदार्थ-जगत के बहुत समीप है और इस संसार में उसी की भरमार है। मनुष्य की ज्ञानेंद्रियाँ बहिर्मुखी हैं और विज्ञान उन्हीं की देन है। वह विज्ञान जो कभी मानव मन की खोज थी, आज उसने मस्तिष्कों को अपने ढंग से आकार प्रदान किया है। प्रकृति और उसके रहस्य ही अनुसंधान के विषय बन गए हैं, जो शक्ति कामधेनु की तरह प्रत्यक्ष रूप से सभी साधन-सुविधाएँ जुटा रही हो, उससे भला कौन मुँह मोड़े? विपन्नता की स्थिति कौन स्वीकारे? ऐसी स्थिति में हमारा अधिकांश समय, श्रम एवं चिंतन उसे प्राप्त करने और उपलब्धि की सुरक्षा करने में खप जाता है। उस की अभिवृद्धि एवं उपभोग में ही हम उलझे रहते हैं। एक ही दिशा में चिंतन-चेतना के बहते रहने पर हम अपना मूल्यांकन, उपलब्धियों के आधार पर करने लगे हैं। इस हालत में न तो चेतनसत्ता के प्रति चिंतन-मनन का समय मिलता है और न आदर्शों के प्रति अभिरुचि जाग्रत होती है।
इस संदर्भ में प्रख्यात वैज्ञानिक एवं दार्शनिक जॉनडेवी का कहना है कि पूर्ण सत्य तक पहुँचने का मार्ग एक ही है और वह है— दर्शन का, अध्यात्म का। यह वह उच्चस्तरीय विज्ञान है, जिसमें किसी बाह्य यंत्र-उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसमें खोज का विषय है— अंतश्चेतना, कार्यक्षेत्र स्वयं का अंतराल तथा उद्देश्य उसमें सन्निहित प्रतिभा, प्रखरता एवं क्षमता का, ऋद्धि-सिद्धियों का उत्पादन, अभिवर्द्धन, उन्नयन है। गुण, कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता, चिंतन, चरित्र, व्यवहार की श्रेष्ठता उसकी कसौटियाँ हैं। इस परीक्षण पर खरा उतरने पर चेतनसत्ता जो तथ्य उसके समक्ष उजागर करती है, वह आधुनिक वैज्ञानिक शक्ति से कई गुने अधिक सुस्पष्ट, सशक्त एवं उपयोगी होते हैं। उनके अनुसार विज्ञान के बढ़ते चरण को सुविधा-संवर्द्धन तक ही सीमित न रहने देकर यदि उसी प्रक्रिया को अगले कदम के रूप में जीवन तथ्यों के उद्घाटन की ओर मोड़ा जा सके तो जो बुद्धि, भौतिक शक्ति के अन्वेषण में लगी हुई है, वही परम सत्य का उद्घाटन करने में भी समर्थ हो सकती है। तब बहुसंख्यक उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों के उदाहरण सामने होने पर सामान्यजनों का मन भी उस ओर आकर्षित होगा। रुझान बढ़ने पर प्रगति की दिशाधारा तदनुरूप बन पड़ेगी।
सुविख्यात वैज्ञानिक जेम्स जीन्स के अनुसार, हम जिस रहस्यमय विश्व-ब्रह्मांड में रह रहे हैं, वह और कुछ नहीं विचारों और भावनाओं की दुनिया है। उसकी अभिवृद्धि ही अभीष्ट है। वैज्ञानिक प्रगति को अवरुद्ध किए बिना हम उसी अन्वेषक बुद्धि के सहारे सत्य का द्वार खोल सकते हैं और उस ज्ञान-संपदा से विश्व संस्कृति को नया स्वरूप प्रदान कर, संपूर्ण मानव जाति को उच्च मानसिक धरातल पर साथ-साथ चलने को विवश कर सकते हैं।
मूर्धन्य वैज्ञानिक आर्थर कोएस्लर ने अपनी कृति 'द रूट्स ऑफ को इन्सीडेन्स' में बताया है कि इस शताब्दी के महान भौतिकविदों— आइन्स्टीन और प्लॉक से लेकर स्रोडिन्गर, हाइजेन बर्ग एवं ब्रोगली तक अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि चेतना प्रमुख है तथा पदार्थ-जगत उसकी उत्पत्ति शोरिंगटन, एक्लीस जैसे प्रख्यात स्नायु विज्ञानी एवं जूलियनहक्सले, एडिंगटन जैसे प्रमुख विज्ञान वेत्ताओं ने एक मत से स्वीकारा है कि इस संसार में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह चेतना का खेल है। अलेक्सिस कैरेल के शब्दों में विज्ञान को अब अपनी अगली यात्रा इसी की खोज से आरंभ करनी होगी, तभी नई सृष्टि की, नवीन समाज की भव्य संरचना विनिर्मित हो सकेगी। इसके लिए वर्तमान चिंतन-पद्धति को बदलने तथा पाश्चात्य वैज्ञानिक विचारधारा में, प्राच्य दार्शनिक चिंतन में, वैज्ञानिक विचारधारा को समाविष्ट किए जाने की आवश्यकता पड़ेगी और तब विज्ञान और दर्शन दोनों महाशक्तियों का समन्वय जीवन की पूर्णता की उपलब्धि सरलतापूर्वक करा सकेगा। भविष्य के इक्कीसवीं सदी के विज्ञान का यही स्वरूप होगा।