आह्वान— मनु की संतानों से

February 1990

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नासिक के पास पंचवटी में एक तरुण बैठा ध्यान कर रहा था। आज पंद्रह वर्षों से उसका एक ही क्रम था। प्रातः-सायं गोदावरी में स्नान, दिन भर स्वाध्याय, जप-तप, रात्रि के कुछ घंटों को नींद के लिए छोड़कर ध्यान। क्रम की निरंतरता अनवरत चल रही थी। उन्हीं दिनों सिक्खों के दसवें गुरू गोविंद सिंह जनजागरण के लिए देश भर की यात्रा के लिए निकले थे। पंचवटी पहुँचने पर उन्होंने इस तरुण तपस्वी का साधनाक्रम देखा। आस-पास के लोगों से पता लगाया। जिज्ञासा और बढ़ी। रात्रि के ध्यान से उठकर जब वह प्रातः नदी स्नान की ओर जा रहे थे, गुरु साथ हो लिए।

पूछा— “आप का शुभ नाम?”

“अब माधवदास”

“अब का तात्पर्य?”

"एकांत साधना के पहले लक्ष्मण देव था।” छोटे प्रश्न का छोटा उत्तर। ऐसा, जैसे अंतर्मुख तपस्वी कुछ अधिक बताने के लिए उत्सुक न हो। गुरु ने कुरेदा— "अपने बारे में कुछ अधिक बताने की कृपा करेंगे?"

उसने गुरु के सिर से पाँव तक एक नजर डाली। प्रखर तेजोमूर्ति का अनुरोध वह अस्वीकार न कर सका। उसने बताना शुरू किया।

“मैं कश्मीर के डोगरा राजपूत परिवार में जन्मा हूँ। पिता का नाम रामदेव था। उन्होंने मुझे शस्त्र और शास्त्र दोनों में निष्णात किया। एक दिन जब मैं शिकार खेल रहा था, तीर गर्भवती हरिणी को लगा। उसके नीचे गिरते ही गर्भ से दो मृग शावक छिटक गए और कुछ ही समय बाद तीनों कलपते-तड़पते मर गए। हृदयविदारक इस दृश्य ने मुझे इतना व्यथित किया कि मैं यहाँ तप के लिए चला आया। उस समय मेरी आयु सोलह वर्ष की थी और... आज कुछ सोचते हुए रुककर उसने, 31 वर्ष।” “तो इस तप-साधना का लक्ष्य क्या है? युवक!” "मान-अपमान में समान रहना, उद्वेगों को शांत करना" और... कहते-कहते वह रुक गया।

"बताओ-बताओ!" गुरु ने प्रोत्साहित किया। "मुक्ति-निर्वाण का परम लाभ पाना।"

“अच्छा! तो यह है, आपकी साधना?” गुरु ने उसकी ओर इस तरह से देखा, मानो वह कोई बहुत छोटी चीज के लिए यत्न कर रहा हो। अभी तक उसे प्रशंसा करने वाले मिले थे; पर गुरु की आँखों में प्रशंसा का कोई भाव न था, उल्टे उनमें उद्धारक की करुणा थी।

"अच्छा! सच बताना, अभी तक तुम मान-अपमान में समान रहकर उद्वेगों को शांत कर सके?"

युवक कुछ क्षण मौन रहा मानो अपने अंदर निहार रहा हो। मौन के बाद बोला— "नहीं!" "और शायद इस तरह जल्दी कर भी न सको”— उन्होंने धीरे से कहा।

"क्या?" कहकर वह अवाक् रह गया। लगा उसके पैरों से जमीन खिसक गई हो। एक साथ हजारों साँप-बिच्छू शरीर पर रेंग गए हों।

कुछ क्षणों तक दोनों मौन रहे। “क्यों?”— तपस्वी ने पूछा। "वत्स"— गुरु का स्वर करुणा विगलित था। “जहाँ तुम्हें कोई सम्मान देने वाला नहीं, अपमानित-तिरस्कृत करने वाला नहीं, उद्वेगों के अवसरों को पास फटकने का मौका नहीं, वहाँ समत्व कैसा?” "तो क्या अब तक की तपश्चर्या व्यर्थ गई?" “नहीं! उससे तुम निष्पाप हुए; पर अधिक समय इसी में जुटे रहना हठ होगा। समय को पहचानने की कोशिश करो।"

कुछ क्षण वह युवक की आँखों में देखते रहे, फिर प्यार भरे स्वर में बोले— “तुम मुक्ति चाहते हो न? यदि मैं उसे इसी जीवन में उपलब्ध करा दूँ?”

“सच!" जैसे उसे सारी दुनिया का वैभव एक साथ मिल गया हो। अस्फुट स्वरों में बुदबुदाया— “जीवनमुक्ति।”

“हाँ।”— गुरु का स्वर था। “पर कीमत चुकानी होगी।” "मैं बड़ी-से-बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हूँ।" “तो उठो और जुट पड़ो जनक्रांति का शंख फूँकने में। अपने तपे-तपाए जीवन और सधे-सधाए मन के द्वारा घर-घर जाकर बताओ— मनुष्य कब, कैसा होता है? मनुष्य देवता कैसे बनता है? मेरे बेटे! जनसमुदाय अनुकरण का आदी है। उसकी प्रवृत्तियों को सत् की ओर मोड़ने के लिए तुम्हारे जैसे खरे शिक्षक चाहिए। बोलो, क्या तैयार हो? मनु की संतानें अज्ञान के अंधकार में पड़ी कीड़े-मकोड़ों की तरह बिलबिला रही हैं। उनके उद्धार के लिए विद्या का आलोक चाहिए, जो पुस्तकों से नहीं, तपे-तपाए, ढले-ढलाए जीवन से ही संभव है। चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो! क्या नीलकंठ बन मानवीय जीवन में भरती जा रही विषाक्तता के शमन के लिए तैयार हो?”— कहते-कहते गुरु का गला भर्रा गया, आँखों की कोरों से आँसू ढुलक पड़े।

"तैयार हूँ गुरुदेव!"— कहकर वह साष्टांग पैरों पर गिर पड़ा।

गुरु ने उठाकर छाती से लगाया। दोनों बेसुध हो रोते रहे। बड़ी देर बाद एकदूसरे से अलग हुए। दोनों की आँखों में अभी भी आँसू थे, पर ये दुःख के नहीं प्रसन्नता के थे। गुरु को प्रसन्नता थी कि मानवता के प्रति उसके हृदय की मर्मांतक पीड़ा को पीने वाला शिष्य मिला। शिष्य को प्रसन्नता थी कि उसके जीवन को सही राह दिखाने वाला गुरु मिला।

घटना का पटाक्षेप हुआ। उस दिन से लक्ष्मण राव गया, माधवदास गया, रह गया सिर्फ गुरु का बंदा, जिसमें स्वार्थ-संकीर्णता का कण भी न था, 'सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय' काम करने की लगन। यही था उसका वैराग्य। इन्हीं अर्थों में वह बंदा वैरागी था।

वह जब तक जीवित रहे, अपने जीवन की ज्योति से औरों की ज्योति जलाते रहे। बिना किसी मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा की कामना से गुरु का काम करते रहे। क्या काम? लोक-शिक्षण। वाणी से नहीं आचरण से। वह साँचे बने, अनेकों ढाँचे तैयार किए। अपने परिचय में सिर्फ इतना कहते और कुछ नहीं, सिर्फ गुरु का बंदा हूँ और गुरु के काम में जीवनमुक्ति का आनंद अनुभव कर रहा हूँ। जून 1716 तक उनका शरीर क्रियाशील रहा। आज शरीर के न रहने पर भी उनकी आत्मा चीख-चीख पुकार रही है। गुरु के बंदों। कहाँ हो? मनु की संतानों की पीड़ा तुम से कैसे देखी जाती है? इनके लिए वापस सतयुग लौटा लाने के लिए तुम्हारा पराक्रम क्यों नहीं जाग रहा? क्या ये पुकारें हमें सुनाई पड़ रही हैं? यदि हाँ, तो फिर गुरु के बंदे बने और कर्त्तव्य कर्म को पहचानकर जुट पड़े।



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