वित्त शक्तातुकर्तत्र्य उचिताभाव पूर्तयः ।
न तु शक्ता नया कार्य दर्पोद्धात्य प्रदर्शनम् ।।
अर्थ—धन, उचित अभावों की पूर्ति के लिए है उसके द्वारा अहंकार तथा अनुचित कार्य नहीं किये जाने चाहिए।
धन का उपार्जन केवल इसी दृष्टि से होना चाहिए कि उससे अपने तथा दूसरों के उचित अभावों की पूर्ति हो। शरीर, मन, बुद्धि, तथा आत्मा के विकास के लिए और सांसारिक उत्तर दायित्वों की पूर्ति के लिए धन का उपयोग होना चाहिए और इसीलिए उसे कमाया जाना चाहिए।
धन कमाने का उचित तरीका वह है जिसमें मनुष्य का पूरा शारीरिक और मानसिक श्रम लगा हो, जिसमें किसी दूसरे के हक का अपहरण न किया गया हो, जिसमें कोई चोरी, छल प्रपंच, अन्याय, दबाव आदि का प्रयोग न किया गया हो। जिससे समाज या राष्ट्र का कोई अहित न होता हो, ऐसी ही कमाई से उपार्जित किया हुआ पैसा फलता फूलता है और उस से मनुष्य की सच्ची उन्नति होती है।
जिस प्रकार धन के उपार्जन में औचित्य का ध्यान रखने की आवश्यकता है वैसे ही उसे खर्च करने में उपयोग में भी सावधानी बरतनी चाहिए। अपने तथा अपने परिजनों के आवश्यक विकास के लिए धन का उपयोग करना ही कर्तव्य है। शान शौकत, अमीरी के चोंचले, फैशन परस्ती, बाहरी प्रदर्शन, ब्याहाशादी, मृतभोज, नशेबाजी, ऐयाशी, दुर्व्यसन आदि के फेर में पड़कर धन का अपव्यय करना मनुष्य की अवनति, अप्रतिष्ठा एवं दुर्दशा का कारण बनता है।
अपनी उचित शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और सांसारिक आवश्यकताओं की उपेक्षा करके जो लोग धन के अधिकाधिक स्वामित्व की तृष्णा में डूबे रहते हैं और सात पुस्तो के लिए अमीरी छोड़ जाना चाहते हैं वे एक भारी भूल करते हैं। मुफ्त की कमाई उपयोग के लिए मिलने पर सन्तान आलसी, व्यसनी, अपव्ययी तथा अन्य बुराइयों की शिकार बन सकती हैं, जिसने जिस पैसे को पसीना बहाकर नहीं कमाया है वह उसका मूल्यांकन नहीं कर सकता। बच्चों के लिए सम्पत्ति जोड़ कर रख जाने की बजाय उन्हें सुशिक्षित, स्वस्थ, और स्वावलम्बी बनाने में खर्च करना अधिक उत्तम है।
चित्र में एक उद्योगी पुरुष अपनी सम्पत्ति को विश्व भारती के चरणों में उपस्थिति करके इस भावना का परिचय दें रहा है कि वह अपने को सम्पत्ति का ट्रस्टी मात्र समझता है। मद, मोह, लोभ, अहंकार अपव्यय आदि से वह बचता है और अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का विश्व माता की धरोहर समझ कर उसके संसार को सुखी बनाने का श्रेय प्राप्त करने में अपना सौभाग्य मानता है।