[ 1 ]
है उत्तरदायित्व पिता का बहुत पुत्र के प्रति भी ।
उसके प्रति जो उदासीन रहते करते अनुचित ही ।।
कुपिता भी तो है कुपुत्र के सदृश पाप का भागी ।
योग्य-पिता होता है जग में सबसे ज्यादा त्यागी ।।
है उत्पादन सरल कठिन है पर कर्तव्य निभाना ।
योग्य-पुत्र के सदृश कठिन है योग्य पिता भी पाना ।।
[ 2 ]
पुत्र शिष्य नारी सेवक में जो अवगुण आ जाते ।
इसका कारण गुरुजन इन पर हैं न दृष्टि रख पाते ।।
इनके अधःपतन में गुरुजन भी हैं उत्तरदायी ।
जिनने उनको है जीवन की राह न बतला पायी ।।
इन कुसुमों के मुरझाने का क्यों न दण्ड यह पाते ।
अपनी भूलों से बसन्त में क्यों यह पतझड़ लाते ?
[ 3 ]
उत्सुक सब अधिकार प्राप्ति के लिये न पर यह जाना ।
साथ-साथ उनको भी अपना है कर्तव्य निभाना ।।
अधिकारों की इच्छा में कर्तव्य भूल-से जाते ।
जीवन में संघर्ष इसी से प्रतिदिन बढ़ते जाते ।।
द्वेष कलह गृहद्रोह इसी कारण प्रायः होते हैं ।
इस ही मृग तृष्णा में नर अधिकार स्वयं खोते हैं ।।
[ 4 ]
सन्तानों के प्रति यदि नर कर्तव्य नहीं कर पाये ।
अच्छा है वह पृथ्वी का बोझा ही नहीं बढ़ाये ।।
दुःखदायी ही होगा तम में अपना पैर बढ़ाना ।
सम्भव है उसमें शूलों का चुभना या घुस जाना ।।
अपने कर्मों के सुदूर फल को जो बेपहिचाने ।
बढ़ जाते हैं वे इस जग में कहलाते दीवाने ।।
[ 5 ]
माता और पिता को छोटा-सा शिशु यह समझाता ।
केवल वह ही पिता कि जो-है निज कर्तव्य निभाता ।।
माता वह जो मन में पावन संस्कार उपजाती ।
रक्षित जिसके पास सदा है जन-जागृति की थाती ।।
धन्य पिता मां जो शिशु की इस वाणी को सुनपाते ।
देव तुल्य वे जो इस शिशु के हैं आदेश निभाते ।।