भवोद्विग्नमना चैव हृदुद्वेगं परित्यज ।
कुरु सर्वास्ववस्थासु शान्तं सन्तुलितं मनः ।।
अर्थ—मानसिक उत्तेजनाओं को छोड़ दो । सभी अवस्थाओं में मन को शान्त और संतुलित रखो।
ज्ञातव्य—
शरीर में उष्णता की मात्रा अधिक बढ़ जाती है तो वह ‘ज्वर’ कहलाता है और वह ज्वर अनेक दुष्परिणामों को उत्पन्न करता है। वैसे ही उद्वेग, आवेश, उत्तेजना, मदहोशी, आतुरता आदि लक्षण मानसिक ज्वर के हैं।
आवेश का अन्धड़ तूफान मनुष्य के ज्ञान, विचार, विवेक को नष्ट कर देता है और वह न सोचने लायक बातें सोचता है एवं न करने लायक कार्य करता है। यह स्थिति मानव जीवन में सर्वथा अवांछनीय है।
विपत्ति पड़ने पर लोग चिन्ता, शोक, निराशा, भय, घबराहट, क्रोध, कातरता आदि विषादात्मक आवेशों से ग्रस्त हो जाते हैं और सम्पत्ति आने पर अहंकार, मद, मत्सर, अति हर्ष, अति भोग, ईर्ष्या, द्वेष आदि उत्तेजनाओं में फंस जाते हैं। यह दोनों ही उत्तेजना मनुष्य की आन्तरिक स्थिति रोगियों, बालकों तथा विक्षिप्तों जैसी कर देती हैं ऐसी स्थिति मनुष्य के लिए विपत्ति, त्रास, अनिष्ट, अनर्थ और अशुभ के अतिरिक्त और कुछ उत्पन्न नहीं कर सकती।
जीवन एक झूला है। जिसमें आगे भी और पीछे भी झोटे आते हैं। झूलने वाला पीछे जाते हुए भी प्रसन्न होता है और आगे आते हुए भी। अनियंत्रित तृष्णाओं की मृग मरीचिका में मन अत्यन्त दीन, अभाव ग्रस्त और दरिद्री की तरह सदा व्याकुल रहता है। इस स्थिति से बचते हुए सदा सब परिस्थितियों में मनुष्य को प्रसन्न रहना चाहिए और उत्तम स्थिति प्राप्त करने के अपने कर्तव्य में पूर्ण दृढ़ता और तत्परता के साथ प्रवृत्त रहना चाहिए।
चित्र में गायत्री की शिक्षा में विश्वास रखने वाला साधक स्थिर चित्त में अपने मानसिक संतुलन को ठीक रखते हुए अन्तर्मुखी होकर प्रसन्न एवं गम्भीर मुद्रा में अवस्थित है। चिन्ता, भय, शोक, लोभ, मोह, क्रोध आदि हानि और लाभ से उत्पन्न होने वाले आवेश उसके चारों ओर फिर रहे हैं पर वह उनसे तनिक भी प्रभावित नहीं होता।