देयानि स्ववशे पुंसा स्वेन्द्रियाण्याखिलानि वै ।
असंयतानि खादन्तीन्द्रियाण्येतानि स्वामिनम् ।।
अर्थ—अपनी इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। असंयत इन्द्रियां, स्वामी का नाश कर देती हैं।
ज्ञातव्य—
इन्द्रियां आत्मा के औजार हैं, घोड़े हैं, सेवक हैं। परमात्मा ने इन्हें इसलिए हमें प्रदान किया है कि इनकी सहायता से आत्मा की आवश्यकताएं पूरी हों और सुख मिले। सभी इन्द्रियां बड़ी उपयोगी हैं, सभी का कार्य जीव को उत्कर्ष एवं आनन्द प्रदान करना है। यदि उनका सदुपयोग हो तो क्षण-क्षण पर जीवन का मधु रस चखता हुआ मनुष्य अपने सौभाग्य को सराहता रहेगा।
किसी भी इन्द्रिय का उपयोग, पाप नहीं हैं। सच तो यह है कि अन्तःकरण की विविध क्षुधाओं को, तृष्णाओं को तृप्त करने का इन्द्रियां एक उत्तम माध्यम हैं। जैसे पेट की भूख प्यास को न बुझाने से शरीर का स्वास्थ्य सन्तुलन बिगड़ जाता है वैसे ही सूक्ष्म शरीर की ज्ञानेन्द्रियों की क्षुधाएं उचित रीति से तृप्त नहीं की जाती तो आन्तरिक क्षेत्र का सन्तुलन बिगड़ जाता है और अनेक मानसिक गड़बड़ियां पैदा होने लगती हैं।
इन्द्रिय भोगों की बहुधा निन्दा की जाती है उसका वास्तविक तात्पर्य यह है कि अनियन्त्रित इन्द्रियां, स्वाभाविक एवं आवश्यक मर्यादा का उल्लंघन करके इतनी स्वेच्छाचारी एवं चटोरी हो जाती हैं वे स्वास्थ्य और धर्म के लिए संकट उत्पन्न करके भी मनमानी करती हैं। आजकल अधिकांश मनुष्य इसी प्रकार के इन्द्रिय गुलाम है। वे अपनी वासना पर काबू नहीं रखते। बेकाबू हुई वासना अपने स्वामी को खा जाती है।
गायत्री का ‘दे’ शब्द अपने ऊपर काबू रखने का उपदेश देता है। इन्द्रियों पर अपना काबू हो, वे अपनी मनमानी करके हमें चाहे जब, चाहे जिधर न घसीट सकें बल्कि जब हम स्वयं आवश्यकता अनुभव करें, जब हमारा विवेक निर्णय करे तब उचित आन्तरिक भूख को बुझाने के लिए उनका उपयोग करें। यहां इन्द्रिय निग्रह है। निग्रहीत इन्द्रियों से बढ़ कर मनुष्य का सच्चा मित्र तथा अनियन्त्रित इन्द्रियों से बढ़ कर शत्रु और कोई नहीं है।
चित्र में एक रथ में दस घोड़े जुते हुए दिखाए गए हैं। शरीर रथ और इंद्रियां घोड़े हैं ये घोड़े अलग-अलग दिशाओं में रथ को ले दौड़ने के लिए ऊधम मचा रहे हैं, यदि इनकी लगाम ढीली छोड़ दी जाय तो निश्चय ही यह रथ को तथा स्वामी को नष्ट कर देंगे। इसलिए बुद्धिमान स्वामी इन सबकी लगाम मजबूती से पकड़े रहे और उन्हें उचित दिशा में चला कर द्रुतगामी बनाता रहे।