सचित्र गायत्री-शिक्षा

परमार्थ और स्वार्थ का समन्वय

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स्यन्दनं परमार्थस्य परार्थो हि बुधैर्मतः । योऽन्यान् सुखयते विद्वान् तस्य दुःखं विनश्यति ।।

अर्थ—लोक हित में ही अपना परम स्वार्थ सन्निहित है। जो दूसरों के सुख का आयोजन करता है उसके दुःख स्वयं नष्ट हो जाते हैं।

ज्ञातव्य— लोक व्यवहार के तीन मार्ग हैं (1) अनर्थ—अर्थात्—दूसरों को हानि पहुंचाकर भी अपना मतलब सिद्ध करना (2) स्वार्थ—व्यापारिक दृष्टि से दोनों ओर के स्वार्थों का सम्मिलन (3) परमार्थ—अपनी कुछ हानि सह कर भी लोकहित की साधना। इन तीनों में से परमार्थ में ही अपना भी परम स्वार्थ समाया हुआ है।

अनर्थ में प्रवृत्त व्यक्ति असुर, स्वार्थ में प्रवृत्त पशु, और परमार्थ में रत व्यक्ति को मनुष्य कहते हैं। मनुष्यता को ही सर्वत्र पूजा, प्रशंसा, प्रतिष्ठा और श्रद्धा प्राप्त होती है।

देव उसे कहते हैं जो दूसरों को अपने सहयोग एवं सेवा से सुखी बनावे। देव स्वभाव का अवलम्बन करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में स्वर्गीय सुख शान्ति का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है।

दूसरों को अभावग्रस्त, दुखी, निर्बल एवं विपन्न देखकर जिनकी अन्तरात्मा रो पड़ती है जो दूसरों को सुखी एवं समुन्नत देख कर प्रसन्न होते हैं ऐसे देव पुरुषों को ही परमार्थी कहते हैं। वे अपनी शक्तियों और योग्यताओं को अपने शौक मौज में न लगा कर दूसरों की सहायता में व्यय करते हैं। ऐसा करने के कारण यद्यपि वे भौतिक सम्पत्तियों से वंचित रहते हैं फिर भी उनकी मनोभूमि स्वर्गीय आनन्द से ओत-प्रोत रहती है। जहां देवत्व रहेगा वहां स्वर्ग भी अवश्य होगा।

लोक हित में संलग्न व्यक्ति को लोगों का सहयोग, आदर, प्रेम, सद्भाव और प्रत्युपकार प्राप्त होता है, वह अज्ञात शत्रु बन जाता है फलस्वरूप उसे अनेकों कठिनाइयों से मुक्ति मिलती है और अनेक अभावों की पूर्ति अपने आप होती रहती है।

चित्र में एक माली पौधों को सींच रहा है। इस सिंचाई से उसे स्वास्थ्य, प्रसन्नता, जीविका, प्रशंसा एवं परमार्थ की सहज प्राप्ति होती है। उस उपवन के कांटे और झाड़ झंखाड़ एक ओर कटे पड़े हुए हैं जो यह बताते हैं कि कठिनाइयां उसके मार्ग को रोक नहीं सकती वरन् स्वयं ही नष्ट हो जाती हैं।
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