तथा चरेत्सदान्येभ्यो वाञ्छत्यंन्यैर्यथा नरः ।
नम्रः शिष्टः कृतज्ञश्च सत्य साहाय्यवान् भवन् ।।
अर्थ—मनुष्य दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करे जैसा दूसरों द्वारा अपने लिए चाहता है। उसे नम्र, शिष्ट, कृतज्ञ और सचाई तथा सहयोग की भावना वाला होना चाहिए।
ज्ञातव्य
हर मनुष्य चाहता है कि दूसरे लोग उससे नम्र बोलें, सभ्य व्यवहार करें, उसकी कोई चीज न चुरायें, विपत्ति पड़ने पर सहायता करें, ईमानदारी से बरतें, कोई भूल हो जाये तो उसे सहन करलें, मार्ग में कोई अनुचित रोड़ा न अटकावें, उसकी बहिन बेटियों पर कुदृष्टि न डालें तथा समय समय पर उदारता एवं सहयोग का परिचय दें।
जब हम दूसरों से अपने प्रति अच्छा व्यवहार चाहते हैं तो हमारे लिए भी यह उचित है कि दूसरों के साथ वैसा ही शिष्टाचार एवं सद्व्यवहार बरतें। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है कुंए की आवाज की तरह हमारे व्यवहार के प्रत्युत्तर में दूसरे भी वैसे ही व्यवहार करते हैं और एक का अनुकरण अन्य करते हैं, इस प्रकार एक शृंखला अच्छाई या बुराई की चल पड़ती है और उसका भला बुरा प्रभाव व्यापक रूप से जन समाज में फैलता है।
गायत्री का अन्तिम अक्षर ‘त्’ शास्त्रकारों की ‘‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’’ उक्ति का उद्घोष करता है। इसे क्रियात्मक रूप में लाना गायत्री शिक्षा की ओर एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाना है।
दूसरों के अनेक उपकार हमारे प्रति होते हैं उनके प्रति कृतज्ञता और उपकार की बुद्धि रखना गायत्री उपासक का आवश्यक कर्त्तव्य है। बहुधा लोग दूसरों के पहाड़ समान उपकार कर भूल जाते हैं और राई बराबर विरोध को बहुत भारी महत्व देकर द्वेष और दुर्बुद्धि में डूबे रहते हैं यह स्थिति सर्वथा अवांछनीय है।
समाज का सारा काम परस्पर एकता, सहयोग, मित्रता और एक दूसरे की सहायता के आधार पर चलता है। अशिष्टता, उपकारों को भूल जाना, असहिष्णुता, अपनी छोटी सुविधा के लिए दूसरों को बड़ी असुविधा में डालना, नागरिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा, वचन का पालन न करना, विश्वासघात, धोखा देना आदि असामाजिक गुण हैं। इनसे बचने में दृढ़ प्रतिज्ञ रहना चाहिए।
चित्र में एक सभ्य पुरुष अपने अतिथियों का समुचित आदर सत्कार कर रहा है। जो व्यक्ति दूसरों के सम्मान और सुविधा का ध्यान रखते हैं उनको भी दूसरों से सम्मान और सुविधा अवश्य प्राप्त होती है।