[ 1 ]
करो सदा व्यवहार दूसरों के संग वैसा ।
अपने प्रति व्यवहार चाहते हो तुम जैसा ।।
शूलों को वो कौन फूल को पा सकता है ।
कटुता दिखला कब कोई अपना सकता है ।।
शिष्टाचार हृदय को सम्मोहित करता है !
जीवन के पथ पर पवित्र मंगल भरता है !!
[ 2 ]
मिल जुल कर चलने से यह सामाजिक जीवन ।
हो जाता है सरल, सुखद, दुःख, ताप विमोचन ।।
औरों को समझो, जैसे हों—वे भी परिजन ।
हो ऐसा व्यक्तित्व कि जिसमें हो आकर्षण ।।
औरों की भूलों को जैसे भी हो भूलो !
तुम गुलाब के सदृश विश्व उपवन में फूलों !!
[ 3 ]
जो दुःख में दें साथ लोग वे हैं उपकारी ।
दे उनको सम्मान रहो उनके आभारी ।।
करो सदा उपकार किन्तु प्रतिकार न चाहो ।
जितना भी संभव हो निज कर्तव्य निभाओ ।।
कोई भी शुभ कर्म व्यर्थ है कभी न जाता !
भला कौन सा फूल नहीं सौरभ बिखराता !!
[ 4 ]
यह है सबको ज्ञात कि नर सामाजिक प्राणी ।
अखिल विश्व को मुखरित करती उसकी वाणी ।।
सत्य और शिव सुन्दर का ही वह स्वरूप है ।
उसका अन्तर देवों का ही एक रूप है ।।
मानवता के कण कण मिलते बनती संस्कृति !
जुड़ी हुई कड़ियां न कभी होने देती यति !!
[ 5 ]
शिष्ट पुरुष निज अतियों की सेवा करता है ।
और हर्ष से अपना भव्य हृदय भरता है ।।
सेवा को है वह अपना कर्तव्य समझता ।
है सेवा के पथ पर क्षण भर कभी न रुकता ।।
ऐसा नर सम्मान सदा जग में पाता है ।
विश्व, स्नेह सहयोग उसी पर बरसाता है ।।