तन में बढ़ता ताप वही ज्वर कहलाता है,
तरह तरह के भय विकार वह उपजाता है,,
इसी तरह जब मन में है उद्वेग समाता,
मद-होशी, आवेश स्वयं ही है बढ़ जाता,,
उसको ही सब लोग मानसिक ज्वर कहते हैं ।
इसी रोग को प्रायः सारे जन सहते हैं ।।
[ 2 ]
यह विकार का अंधड़ सारा ज्ञान मिटाता,
है विवेक को ग्रस लेता सद् बुद्धि छिपाता,,
उसके चिन्तन में न सत्य, भ्रम ही होता है,
उसके कर्मों में न धर्म का क्रम होता है,,
बड़ी दुःखद होती है जीवन की यह अवनति ।
और अनेकों त्रस्त इसी से रहते हैं नित ।।
[ 3 ]
आती जब कि विपत्ति लोग चिन्ता करते हैं,
क्रोध निराशा और ग्लानि मन में भरते हैं,,
वैभव पाकर अहंकार में रत हो जाते,
मद, मत्सर, आवेश अमर्यादा दिखलाते,,
दोनों ही में नर होते रोगी के सम हैं ।
रहते पागल और बालकों से कब कम हैं ।।
[ 4 ]
हार जीत सुख दुःख सदैव रहते जीवन में,
खेला करता मानव है उत्थान-पतन में,,
बनकर मृग वह जग मरीचिका में भरमाता,
यह अमूल्य मानव जीवन है व्यर्थ गंवाता,,
पर सदैव जो एक भाव से ही हैं रहते ।
वीत राग बनकर जो कुछ आता वे सहते ।।
[ 5 ]
धीर सदा हंसते हैं कब उत्तेजित होते,
हर्ष शोक में नहीं मानसिक स्थिरता खोते,,
उनको वातावरण तनिक भी बदल न पाता,
चिंता, भय, मद, लोभ नहीं इनसे डर जाता,,
पथ की बाधाओं से होता उन्हें न भय है ।
गायत्री का साधक तो जग में निर्भय है ।।