सत्तावन्तस्तथा शूराः क्षत्रिया लोकरक्षकाः ।
अन्याया शक्ति संभूतान् ध्वंसयेयुहि व्यापदाः ।।
अर्थ—सत्तावान्, शूर तथा संसार के रक्षक क्षत्रिय, अन्याय और अशक्ति से उत्पन्न होने वाली आपत्तियों को नष्ट करें।
क्षत्रियत्व एक गुण है। वह किसी वंश विशेष में न्यूनाधिक भले ही मिलता हो पर किसी वंश तक ही सीमित नहीं है। क्षत्रियत्व का प्रधान लक्षण है—शूरता। अर्थात् धैर्य, साहस, निर्भयता, पुरुषार्थ, दृढ़ता, पराक्रम, यह गुण जिनमें जितना न्यूनाधिक है वह उतने ही अंश में क्षत्रिय है।
शारीरिक प्रतिभा, तेज, सामर्थ्य, शौर्य, पुरुषार्थ और सत्ता का क्षात्र बल जिनके पास है उनका पवित्र कर्तव्य है कि वे अपनी इस शक्ति द्वारा निर्वलोकी रक्षा करें, ऊपर उठावें, तथा अन्याय अत्याचार करने वाले दुष्ट प्रकृति के लोगों से संघर्ष मोल लेकर उन्हें परास्त करने के लिए अपने प्राणों तक की बाजी लगादें।
खेद है कि आज इससे विपरीत ही उदाहरण अधिक दिखाई पड़ते हैं जिनके पास शक्ति, सामर्थ्य और सत्ता है वे उसका दुरुपयोग करके अनीति निवारण करने की बजाय उसे बढ़ाने के कारण बनाते हैं। निर्बलों को सहायता पहुंचाना तो दूर—उलटे उनके शोषण, दमन, त्रास एवं उत्पीड़न का आयोजन करते हैं।
शक्ति और सत्ता ईश्वर की एक पवित्र धरोहर है जो मनुष्य को इसलिए दी जाती है कि वह अपने से निर्बलों के हित की रक्षा करे। जो उसके दुर्बलों पर आक्रमणात्मक प्रहार करता है वह क्षत्रिय नहीं असुर है। सामर्थ्य का आसुरी उपयोग करना उस महाशक्ति का प्रत्यक्ष अपमान है और उस अपमान का परिणाम वैसा ही भयंकर होता है जैसा कि महाकाली से लड़ने वाले महिषासुर आदि का हुआ था।
किसी पर अन्याय होते देखकर, किसी को अन्याय करते देखकर, अन्तरात्मा का जो अंश, दुखी, क्षुभित, दयार्द्र, एवं सेवा और संघर्ष में प्रवृत्त होता है वह क्षत्रियत्व है। यह दैवी अंश हर मनुष्य की अन्तरात्मा में मौजूद है इसी को गायत्री मंत्र के द्वतिय अक्षर ‘स’ ने जागृत और सुविकसित करने का संदेश दिया है।
चित्र में एक वीर क्षत्रिय गौ ब्राह्मण (सात्विक तत्वों) तथा निर्बल दुर्बल बाल वृद्धों की रक्षा करने के लिए अपने प्राण हथेली पर रखकर अत्याचारी असुरों से लड़ रहा है। अन्तर्जगत तथा वाह्य संसार में सत् की रक्षा और असत् का विनाश करने को सदैव प्रवृत्त रहना, हर मनुष्य का आवश्यक क्षात्र धर्म है।