हितं मत्वा ज्ञान केन्द्रं स्वातन्त्र्येण विचास्येत् ।
नान्धानुसरणं कुर्यात् कदाचित् कोऽपि कस्यचित् ।।
अर्थ—विवेक को ही कल्याणकारक समझकर, हर बात पर स्वतन्त्र रूप से विचार करे। अन्धानुकरण न करे।
ज्ञातव्य—
देश, काल, पात्र, अधिकार और परिस्थिति के अनुरूप मानव समाज के हित और सुविधा के लिए विविध प्रकार के शास्त्र, नियम, कानून और प्रथाओं का निर्माण एवं प्रचलन होता है।
परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ इन मान्यताओं एवं प्रथाओं का परिवर्तन होता रहता है। आदि काल से लेकर अब तक अनेक प्रकार की शासन पद्धतियां, धर्म धारणाएं, रीति रिवाजें और प्रथा परम्पराएं बदल चुकी हैं।
शास्त्रों में अनेक स्थलों पर परस्पर विरोध दिखाई पड़ते हैं इसका कारण यह है कि विभिन्न समयों पर, विभिन्न कारणों से जो परिवर्तन रीति नीति में होते रहे हैं उनका शास्त्रों में उल्लेख है। लोग समझते हैं कि यह सब शास्त्र और सब नियम एक ही समय में प्रचलित थे इसी से विरोधाभास होता है। भारतीय शास्त्र सदा प्रगतिशील रहे हैं और देश काल परिस्थिति के अनुसार व्यवस्थाओं में परिवर्तन करते रहे हैं।
कोई प्रथा, मान्यता या विचारधारा समय से पिछड़ गई हो तो परम्परा के मोह से उसका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिए। वर्तमान स्थिति का ध्यान रखते हुए प्रथाओं में परिवर्तन हो सकता है। आज हमारे समाज में ऐसी अगणित प्रथाएं हैं जिनको बदलने की बड़ी आवश्यकता है।
गायत्री का ‘हि’ शब्द विवेक की कसौटी हमारे हाथ में देता है और आदेश करता है कि किसी भी पुस्तक, व्यक्ति या प्रथा की अपेक्षा विवेक का महत्व अधिक है। जो बात बुद्धि, विवेक, व्यवहार एवं औचित्य की परीक्षा में खरी उतरे उसे ही ग्रहण करना चाहिए।
बुद्धि के न्यायशील, निःस्वार्थ, सतोगुणी, सदय, उदार एवं लोकहितैषी भाग को विवेक कहते हैं। इस विवेक के आधार पर किया हुआ कोई भी निर्णय सदा कल्याणकारक ही होता है। इस आधार का अवलम्बन करने से कोई भूलें होंगी भी तो उनका निवारण शीघ्र हो जायगा और एक दिन पूर्ण सत्य की प्राप्ति हो सकेगी।
विवेक हमें हंस की तरह नीर क्षीर का विवेक करना सिखाता है। जहां बुराई और भलाई मिल रही हो, वहां बुराई को प्रथक करके अच्छाई को ही ग्रहण करना चाहिए। बुरों को भी अच्छाई का आदर करना चाहिए और अच्छों को भी बुराई को छोड़ देना चाहिए।
विवेक हमारा सच्चा मित्र है, वह भूलें सुधारता है, मार्ग दिखाता है, उलझनें सुलझाता है, खतरों से बचाता है, सफलता की ओर अग्रसर करता है। ऐसे मित्र की उपयोगिता और आवश्यकता को समझते हुए उसको समुचित आदर करना चाहिए।