दर्शन ह्यात्मनः कृत्वा जानीयादात्म गौरवम् ।
ज्ञात्वा तु तत्तदात्मानं पूर्णोन्नति पथं नयेत् ।।
ज्ञातव्य—
अर्थ—आत्मा को देखे, आत्मा को जाने, उसके महान् गौरव को पहिचाने और आत्मोन्नति के मार्ग पर चले।
मनुष्य महान् पिता का सबसे प्रिय पुत्र है। सृष्टि का मुकुट मणि होने के कारण उसका गौरव और उत्तरदायित्व भी महान् हैं। यह महत्ता इसके दुर्बल शरीर के कारण नहीं वरन् आत्मिक विशेषताओं के कारण हैं जिसकी आत्मा जितनी ही बलवान है वह उतना ही बड़ा महा पुरुष है।
आत्म गौरव की रक्षा करना मनुष्य का परम पवित्र कर्त्तव्य है। जिससे आत्म गौरव घटता हो, आत्म ग्लानि होती हो, आत्म हनन करना पड़ता हो, ऐसे धन, सुख, भोग और पद को लेने की अपेक्षा भूखा नंगा रहना कहीं अच्छा है। गायत्री का ‘द’ अक्षर कहता है कि—आत्म सम्मान की रक्षा के लिए, आत्म ग्लानि की निवृत्ति के लिए मनुष्य को बड़े से बड़ा त्याग करने में भी न झिझकने के लिए तैयार रहना चाहिए।
जिसके पास आत्म धन है वही सबसे बड़ा धनी है, जिसका आत्म गौरव सुरक्षित है वह इन्द्र के समान बड़ा पदवी धारी है भले ही चांदी तांबे के टुकड़े उसके पास कम मात्रा में ही क्यों न हों।
अपने को शरीर समझने से मनुष्य माया ग्रस्त होता है और शरीर से सम्बन्ध रखने वाली सांसारिक उलझनों में ही उलझकर मनुष्य जीवन जैसे अमूल्य सौभाग्य को गंवा देता है। जब यह अनुभूति होने लगती है कि मैं आत्मा हूं। शरीर तो मेरा एक अल्पस्थायी वस्त्र मात्र है। वर्तमान जीवन अनन्त जीवन को एक छोटी कड़ी मात्र है तो वह अपना स्वार्थ उन बातों में देखता है जिनसे आत्मा का हित साधन होता है। इसी को आत्मज्ञान कहते हैं।
सबमें अपने को देखना, अपने में सबको देखना, सबको अपना समझना, अपने को सबका समझना, यह आत्म प्रतीति या आत्म साक्षात्कार है। अपने स्वार्थ, लक्ष्य और दृष्टिकोण को अत्यन्त विशाल, उदार और दिव्य रखते हुए जीवन का सद्व्यय करना यही आत्मोन्नति का उपाय है। लघुता के बन्धनों को तोड़ कर महानता में प्रवेश करना ही आत्मा को परमात्मा बनाने का मार्ग है। अन्तरात्मा के चरणों में अपनी बुद्धि को सौंप देना ही प्रभु को आत्म समर्पण करना है। विषय, विकारों और पाप बन्धनों से छुटकारा पाने को ही जीवन मुक्ति कहते हैं।
चित्र में सुरम्य स्थान पर एक साधक ध्यान मग्न होकर अपनी आत्मा में परमात्मा के दर्शन कर रहा है। आत्मा को जान लेना ही सब कुछ जान लेना है, जिसने आत्मा को प्राप्त कर लिया उसके लिए और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।