सचित्र गायत्री-शिक्षा

सहयोग और सहिष्णुता

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पाप हृदय में पर, वाहर से उसे छिपाना । अन्तर में दावानल अधरों पर मुस्काना ।। घृणा हृदय में पर वाणी में प्रेम दिखाना । द्वेष दंभ छल में ही जीवन व्यर्थ गंवाना ।। ऐसे नर जो दिखलाते रहते आडम्बर ! अविश्वास के पात्र बने रहते जीवन भर !!

[ 2 ] जो आत्मा को हैं असत्य का पट पहनाते । सदा आत्म हत्यारे ऐसे नर कहलाते ।। सदा धर्म ग्रन्थों ने है इनको धिक्कारा । ऐसे पुरुषों का जीवन पापों की कारा ।। पाप-पात्र जब क्रमशः बढ़ता ही जाता है ! नाश एक दिन अपने ही हाथों आता है !!

[ 3 ] है प्रति जल के भाव भिन्न, मत भी न एक हैं । क्योंकि विश्व में बिखरे जीवन पथ अनेक हैं ।। लक्ष्य भिन्न होते गति एक नहीं रहती है । कर्मों की धारा में मानवता बहती है ।। पर सहिष्णु नर हैं भेदों का सार समझते ! इनमें चलने वालों का आधार समझते !!

[ 4 ] मत भेदों के होने पर भी तो उदार नर । मुखरित करते सदा समन्वय का मंगल स्वर ।। क्योंकि आत्मा एक, एक ही ब्रह्म रूप है । व्यापक जग में एक रूप के बहु स्वरूप है । औरों के अनुकूल कर्म जो अपने करते ! ऐसे नर हैं जग जीवन में मधु रस भरत !!

[ 5 ] बुद्धिमान नर स्वयं दूसरों में मिल जाता । फिर विभिन्न तत्वों को लाकर पास मिलता ।। है सहयोग, संतुलन और समन्वय लाता । जीवन की कटुता हरता है, मोद बढ़ता ।। उस साधक के मित्र सभी जग में होते हैं । उसके चरणों में चारों ही फल सोते हैं ।।
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