चोदयत्येव सत्संगो धियमस्य फलं महत् ।
स्वमतो सज्जै विद्वान् कुर्यात् पर्यावृतं सदा ।।
अर्थ—सत्संग से बुद्धि का विकास होता है इसलिए सदैव सत्पुरुषों का संग करे। सत्संग का फल महान् है।
ज्ञातव्य—
मनुष्य के मस्तिष्क पर वातावरण, स्थान, परिस्थिति और व्यक्तियों का निश्चित रूप से भारी प्रभाव पड़ता है। जो लोग अच्छाई की दिशा में अपनी उन्नति करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि अपने को अच्छे वातावरण में रखें, अच्छे लोगों को अपना मित्र बनावें, उन्हीं से अपना व्यापार, व्यवहार और सम्बन्ध रखें। सम्भव हो तो परामर्श, उपदेश और पथ प्रदर्शन भी उन्हीं से प्राप्त करें।
यथा साध्य अच्छे व्यक्तियों का सम्पर्क बढ़ाने के अतिरिक्त अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय भी ऐसा ही उपयोगी है। जिन जीवित या स्वर्गीय महापुरुषों से प्रत्यक्ष सत्संग सम्भव नहीं उनकी पुस्तकें पढ़कर सत्संग में लाभ उठाया जा सकता है। एकान्त में स्वयं भी अच्छे विचारों का चिन्तन और मनन करके तथा अपने मस्तिष्क को इसी दिशा में लगाये रहने से भी आत्म सत्संग होता है। यह सभी सत्संग आत्मोन्नति के लिये आवश्यक है।
शरीर वस्त्र मकान, बर्तन आदि की सफाई नित्य करनी पड़ती है। क्योंकि नित्य ही उन पर मैल जमा होता रहता है। इसी प्रकार मन पर भी संसार के बुरे वातावरण का मैल और कुप्रभाव निरन्तर पड़ता रहता है उसकी सफाई के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग को बुहारी लगाने की आवश्यकता होती है। इस बुहारी को शास्त्रों में नित्य कर्म बताया गया है ‘‘शतपथ ब्राह्मण’’ में कहा गया है कि—जिस दिन भी स्वाध्याय न किया जाय उसी दिन मनुष्य की स्थिति शूद्र जैसी हो जाती है। इस नित्य कर्म में मनुष्य को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
अच्छे विचार के धारण करने से ही कुविचार दूर होते है। कटोरे में पानी भर देने से उसमें जो हवा पहले भरी हुई थी वह निकल जाती है। इसी प्रकार कुविचारों से सत्यानाशी शत्रुओं से पीछा छुड़ाना हो और परम कल्याणकारी सद्विचारों को अपनाना हो तो यह आवश्यक है कि उसके एक मात्र उपाय स्वाध्याय एवं सत्संग के लिए पूर्ण प्रयत्न के साथ अवसर निकालते रहें।
चित्र में छह भद्र पुरुष, उत्तम विषयों पर विचार विनियम, परामर्श एवं सत्संग कर रहे हैं। स्वाध्याय के लिए सद्ग्रन्थों का अच्छा संग्रह पास में रखा हुआ है। इस नित्य कर्म का सन्देश गायत्री के ‘यो’ अक्षर में दिया गया है।