वद नारीं विना कोऽन्यो निर्माता मनु सन्ततेः ।
महत्वं रचना शक्तेः स्वस्याः नार्याहि ज्ञायताम् ।।
अर्थ—मनुष्य की निर्मात्री नारी ही है। नारी की रचना में शक्ति का महत्व समझा जाना चाहिए।
ज्ञातव्य—
नारी से ही मनुष्य उत्पन्न होता है। बालक की आदि गुरु उसकी माता है। पिता के वीर्य का एक बूंद ही निमित्त होती है बाकी बालक का समस्त अंग-प्रत्यंग माता के रक्त से बनते हैं। उस रक्त में जैसी स्वस्थता, प्रतिभा, विचारधारा अनुभूति होगी उसी के अनुसार बालक का शरीर, मस्तिष्क एवं स्वभाव बनेगा। नारियां यदि अस्वस्थ, अशिक्षित, अविकसित पराधीन, कूप मंडूक एवं दीन हीन रहेंगी तो उनके द्वारा उत्पन्न हुए बालक भी इन्हीं दोषों से युक्त होंगे। ऊसर खेत में अच्छी फसल नहीं पैदा हो सकती।
अच्छे फलों का बाग लगना हो तो अच्छी भूमि की आवश्यकता होगी। यदि मनुष्य जाति अपनी उन्नति चाहती है तो पहले नारी को शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में प्रतिभावान् एवं सुविकसित बनना होगा तभी मनुष्य जाति में सबलता, सक्षमता, सद्बुद्धि, सद्गुण और महानता के संस्कारों का विकास हो सकता है। नारी को पिछड़ी रखना अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारना है।
जन समाज दो भागों में बंटा हुआ है (1) नर (2) नारी। नर की उन्नति सुविधा एवं सुरक्षा के लिए प्रयत्न किया जाता है परन्तु नारी हर क्षेत्र में पिछड़ी हुई है। फलस्वरूप हमारा आधा राष्ट्र, आधा समाज, आधा संसार, आधा परिवार, आधा जीवन पिछड़ा हुआ रह जाता है। जिस रथ का एक पहिया बड़ा और एक बहुत छोटा हो, जिस हल में एक बैल बड़ा दूसरा बहुत छोटा जुता है उसके द्वारा सन्तोषजनक नहीं हो सकता। हमारा देश, समाज, समुदाय तब तक सच्चे अर्थों में विकसित नहीं कहा जा सकता जब तक कि नारी को भी नर के समान ही क्रियाशीलता एवं प्रतिभा प्रकट करने का अवसर प्राप्त न हो।
आज नारी के प्रति नर का अविश्वास, बन्धन, संकीर्ण भाव, अत्यधिक बढ़ा हुआ है। वह सोचता है कि यदि नारी का पराधीनता के बन्धन थोड़े ढीले कर दिए गए, उसे भी मनुष्योचित अधिकार प्राप्त करने दिए, उन्नति एवं सुविधा के समान अवसर दिये गये तो वह हमारे नियन्त्रण में न रहेगी। वे नेकी, न्याय, प्रेम और सहयोग को शक्ति पर विश्वास न करके अज्ञान, बन्धन एवं अर्धमृत अवस्था में रखकर अपना स्वार्थ साधन चाहते हैं। पुरुष जाति की यह दुर्भावना इसके वर्तमान पतन प्रधान कारण है। यह स्थिति गायत्री की शिक्षा से सर्वथा विपरीत है।
चित्र में भारतीय अध्यात्मिकता की आत्मा प्रकट की गई है। नारी की प्रधानता है। माता को गुरु मान कर उसके स्वाभाविक सद्गुणों को अनुगमन करने की प्रेरणा है। सीताराम, लक्ष्मीनारायण, राधेश्याम, गौरीशंकर आदि नामों में जैसे नारी का प्रथम और नर का द्वितीय स्थान है वैसे ही हमारे मस्तिष्क में नारी की प्रधानता एवं पूज्य भावना का स्थान होना चाहिए। ईश्वर को नारी के रूप में मान कर उसकी आराधना करना ही गायत्री उपासना है।