महेश्वरस्य विज्ञाय नियमान्न्याय संयुतान् ।
तस्य सत्तांच स्वीकुर्वन् कर्मणा तमुपासयेत् ।।
अर्थ—परमात्मा की सत्ता और उसके न्यायपूर्ण नियमों को समझ कर ईश्वर उपासना करनी चाहिए।
ज्ञातव्य
ईश्वर सर्व व्यापक, दयालु, सच्चिदानन्द, जगत् पिता, न्यायकारी आदि अनेक महिमाओं से युक्त हैं। उनका ध्यान रखने से मनुष्य का बुराइयों से बचना और दूसरों के साथ आत्मीयता पूर्ण सद्व्यवहार करना अधिक सम्भव है। इसलिए आस्तिकता मनुष्य जाति की महान आवश्यकता है। अपनी आत्मा को लघुता से विकसित करके उसे पूर्ण-महान-परम आत्मा-परमात्मा बना देना मानव जीवन का लक्ष है। ईश्वर उपासना के विविध कर्म काण्ड एक प्रकार के आध्यात्मिक व्यायाम हैं जिसके द्वारा आत्म बल बढ़ता है और उस आत्म बल द्वारा नाना प्रकार के भौतिक सुख एवं आत्मिक आनन्द प्राप्त होते हैं उन्हें ही ईश्वरीय कृपा भी कहा जाता है, उसमें हमें जीवन एवं जीवन यापन के अनेक साधन दिये हैं जिनके कारण वह दयामय, दानी और परम पिता कहलाता है। कृतज्ञता और उपकारी के प्रति श्रद्धा की महान भावना को अन्तःकरण में स्थिर और प्रबल रखना प्रार्थना का मुख्य उद्देश्य है।
इन सब बातों को समझते हुए ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह न्यायकारी एवं नियम रूप है जैसे अग्नि, बिजली, आदि नियमानुकूल व्यवहार करने से वे बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है किन्तु यदि उनके नियमों को तोड़ा जाय तो वे ही प्राण घातक बन जाता है, इसी प्रकार ईश्वरीय नियमों का पालन करना ही उससे लाभ उठाने का सर्वोत्तम मार्ग है।
ईश्वर का सबसे निकट स्थान अपनी अन्तरात्मा है। वहां से वह परम प्रभु-सद्गुरु के रूप में सन्मार्ग पर चलने का आदेश देता रहता है। हमारी मलीनता ही उसके रूप का दर्शन करने में और उसकी वाणी सुनने में बाधा डालती है, यदि अपनी अन्तरात्मा को पवित्र बना लिया जाय तो ईश्वर का साक्षात्कार और उससे प्रेम संभाषण बड़ी आसानी से हो सकता है। अन्तरात्मा की पुकार ही ईश्वरीय आकाश वाणी है। उसे सुनने से उसके संकेतों पर चलने में बुरे से बुरा मनुष्य भी थोड़े ही समय में श्रेष्ठतम महात्मा बन सकता है।
परमात्मा और आत्मा के बीच में जो आदान प्रदान होता है उसका माध्यम एक तराजू है जिसका एक पलड़ा न्याय और दूसरा नियम है। जीव जितना ही ईश्वरीय नियमों पर चलता है, या उन्हें तोड़ता है उतरी ही तौल के अनुसार न्यायानुकूल उसे कर्म फल मिलता है। स्वेच्छा पूर्वक भले बुरे कर्म करने में सब जीव पूर्ण स्वतंत्र है पर वे उन कर्मों का फल प्राप्त करने में पराधीन है। अपने किये हुए कर्मों के फल (प्रारब्ध) का भोग आवश्यक होता है। चित्र में इसी भावना को एक साधक हृदयंगम कराया गया है।