[ 1 ]
आत्मा को देखो फिर उसका सत्य रूप पहचानो ।
फिर उसके ही आदेशों को तुम जीवन भर मानो ।।
परम पिता का पुत्र मनुज है गौरव का अधिकारी ।
है कर्तव्य अनेक उसके यद्यपि सत्ता धारी ।।
यह वैभव इसलिए कि उसकी आत्मा बहुत बड़ी है !
जिसके आगे दिव्य शक्ति भी जोड़े हाथ खड़ी है !!
[ 2 ]
आत्मा के गौरव की रक्षा है प्रति जन को करना ।
हो जाये यदि नष्ट पड़ेगा उसे ग्लानि से भरना ।।
यदि आत्मा का हनन स्वर्ग का सुख भी भू पर ला दें ।
मानव सच्चा वही कि हंसकर उसको भी ठुकरा दें ।।
रहे आत्म-सम्मान, भले ही सब कुछ जग में जाये !
चाहे जीवन पर संकट की घोर घटा छा जाये !!
[ 3 ]
सबसे बड़ा धनी है वह ही पास, आत्म–धन जिसके ।
इससे बढ़ कर और सम्पदा हो सकती है किसके ।।
तन को ही सर्वस्व समझने वाले नर अज्ञानी ।
उलझन में लिपटे रहते हैं करते हैं नादानी ।।
ऐसे नर जीवन में कुछ भी कार्य नहीं कर पाते !
आत्मा के वैभव को मिट्टी सदृश व्यर्थ बिखराते !!
[ 4 ]
वर्तमान जीवन, अनंत जीवन की एक कड़ी है ।
फिर भी हेय नहीं है इसकी महिमा बहुत बड़ी है ।।
अपना रूप देखते हैं जो इस जग के कण-कण में ।
जग के कण-कण की छाया पाते हैं अपने मन में ।।
दृष्टिकोण जिनका उदार है नहीं स्वार्थ रत होते !
अपनी भांति दूसरों का हित करते जगते सोते !!
[ 5 ]
सीमाओं के बन्धन तज कर जब अनन्त पाने को ।
व्याकुल होती है आत्मा परमात्मा बन जाने को ।।
तब मानव अपना ही सच्चा रूप जान लेता है ।
और ब्रह्म के आगे अर्पण सब कुछ कर देता है ।।
छुटकारा पा जाता है वह चिर संचित पापों से !
मिल जाती है मुक्ति उसे सारे ही अभिशापों से !!
[ 6 ]
ध्यान मग्न साधक आत्मा में परमात्मा पाता है ।
उसके अन्तर में प्रकाश सहसा ही छा जाता है ।।
सन्मुख चतुर्भुजी प्रतिभा है खड़ी बन्द कर लोचन ।
परम शान्ति देता है उसको वह भव ताप विमोचन ।।
उस साधक ने (द) अक्षर का मर्म स्वयं पहचाना !
इसीलिए उसने अपने को प्रभु का मन्दिर माना !!