नः शृण्वेकामिमां वार्तां जागृतस्त्वं सदा भव ।
स्वपमाणं नरं नूनं ह्याक्रामन्ति विपक्षिणः ।
अर्थ—इस शिक्षा को ध्यान पूर्वक सुनो कि ‘‘सदा सावधान रहना चाहिए’’ क्योंकि असावधान मनुष्य पर शत्रुओं के आक्रमण होते हैं।
ज्ञातव्य
असावधानी, आलस्य, बेखबरी, अदूरदर्शिता ऐसी भूल हैं जिसे अनेक आपत्तियों की जननी कह सकते हैं। गफलत में रहने वाले आदमी पर चारों ओर से हमले होते हैं। असावधानी में ऐसा आकर्षण है कि उससे खिंच-खिंच कर अनेक प्रकार की हानियां एवं विपत्तियां एकत्रित हो जाती हैं।
असावधान आलसी मनुष्य एक प्रकार आ अर्धमृत है। मरी हुई लाश को पड़ी देखकर जैसे चील, कौए, कुत्ते, सियार, गिद्ध, आदि दूर-दूर से दौड़ कर जमा हो जाते हैं वैसे ही असावधान मनुष्य के ऊपर आक्रमण करने वाले तत्व कहीं न कहीं से आकर घात लगाते हैं।
जो स्वास्थ्य रक्षा के लिए जागरुक नहीं है उसे देर सवेर में बीमारियां आ दबोचेंगी। जो नित्य आते रहने वाले उतार चढ़ावों से बेखबर है वह किसी दिन दिवालिया बन कर रहेगा। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर सरीखे मानसिक शत्रुओं की गति विधियों की ओर से आंखें बन्द किए रहता है वह कुविचारों और कुकर्मों के गर्त में गिरे बिना न रहेगा। जो दुनिया के छल, फरेब, झूठ, ठगी, लूट, अन्याय, स्वार्थपरता, शैतानी आदि की ओर से सावधान नहीं रहता उसे उल्लू बनाने वाले, ठगने वाले, सताने वाले अनेकों पैदा हो जाते हैं। जो जागरूक नहीं, जो अपनी ओर से सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, उसे दुनिया के शैतानी तत्व बुरी तरह नोंच खाते हैं।
इसलिए गायत्री का ‘नः’ अक्षर हमें सावधान करता है कि होशियार रहो, सावधान रहो, जागते रहो, कि तुम्हें शत्रुओं के आक्रमणों का शिकार न बनना पड़े। विवेक पूर्वक त्याग करना और उदारता से परोपकार करना तो उचित है पर अपनी बेवकूफी से दूसरे बदमाशों का शिकार बनना सर्वथा अवांछनीय और पाप मूलक है। जहां अच्छाइओं की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना आवश्यक है वहां बुराई से सावधान रहने, बचने और उससे संघर्ष करने की भी आवश्यकता है।
चित्र में एक पहरेदार किले की रक्षा कर रहा है। जीवन रूपी दुर्ग की रक्षा के लिए अपने को एक कर्त्तव्य परायण कटिबद्ध, प्रहरी की भांति सदैव सजग रहना चाहिए। अन्यथा इस किले की सुरक्षा और सम्पत्ति खतरे में पड़ सकती है। हमें किसी पर आक्रमण करने की आवश्यकता नहीं है पर आत्म रक्षा के लिए तो सदैव सतर्क एवं कटिबद्ध रहना ही चाहिए।