सचित्र गायत्री-शिक्षा

ईश्वर के विराटरूप की झांकी

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भूमि स्वर्ग पाताल सभी हैं परमात्मा से लीन, इसके बिना अखिल रचना का वैभव हीन, मलीन,, परमात्मा की क्रीड़ा स्थल से हैं यह सभी अपार, अन्तर्यामी लीलाधर की लीला अपरम्पार,, वर्णन जिसका कर न कसे हैं अब तक वेद पुराण । उसी महा प्रभु का हो प्रति दिन प्रति क्षण प्रति पल ध्यान ।।

( 2 )

अलख अलौकिक ज्योति उसी का है कण कण में भास, वैसे ही जैसे कि ज्ञान में छिपा हुआ संन्यास,, अथवा साहस के अन्तर में व्याप्त अटल विश्वास, क्षय अक्षय के अटल चक्र पर मानवता की प्यास,, एक तत्व के शत रूपों का है घनिष्ठ सम्बन्ध । कविर्मनीषी के रस से ज्यों सम्बन्धित हैं छन्द ।।

( 3 )

सेवा ममता और मोह का यह अपूर्व संयोग, उसका ही करना प्रति जन को है अनुपम उपयोग,, यह अपूर्व अवसर सेवा का कहीं न जायें छूट, संघर्षों से लिपटा जीवन का क्रम जाये टूट,, यह सुरम्य वाटिका जगत की मानव सुभग प्रसून । बहुजन हित की सुरभि बिना है यह सब बिलकुल शून्य ।।

( 4 )

कर सकता है कौन भला नृप के सम्मुख अपराध, उसे नहीं ऐसा करने देगी जीवन की साथ,, उस ही विध प्रभु के सम्मुख भी कौन करेगा पाप, करने वाला प्राप्त करेगा सदा घोर सन्ताप,, ऐसा कोई नहीं न माने जो उसका अधिकार । मानव ! कर प्रयास हरने का अहं स्वार्थ का भार ।।

( 5 )

है आराधक एक कर रहा ‘ॐ’ ब्रह्म के दर्शन, देख रहा जल, भूमि और आकाश शान्त सम्मोहन,, लगा हुआ है ध्यान ब्रह्म की ओर और वह निर्भय,, करता है शिव सत्य और सुन्दर के रस का संचय,, ब्रह्मानन्द स्वरूप लीन उसमें ही है आराधाक । साध्य और साधक दोनों के बीच न कोई बाधक ।।
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