यो धर्मो जगदाधारः स्वाचरणे तमानय ।
मा विडम्वय तं स ते ह्येका मार्गे सहायकः ।।
अर्थ—जो धर्म संसार का आधार है। उस धर्म को अपने आचरण में लाओ। उसकी विडम्बना मत करो। वही तुम्हारा एक मात्र सहायक है।
ज्ञातव्य—
धर्म संसार का आधार है। उसके ऊपर विश्व का समस्त भार रखा हुआ है। यदि धर्माचरण उठ जाय तो सबको अपने प्राण बचाने और दूसरों का अपहरण करने की चिन्ता में निशिदिन डूबा रहना पड़ेगा और कोई भी चैन से न बैठ सकेगा।
दुष्ट लोग भी सज्जनता की आड़ में अनुचित लाभ उठाने का षडयन्त्र करते हैं। इससे प्रकट है कि धर्म ऐसी मजबूत चीज है, जिसका आश्रय लेकर दुष्ट दुराचारी भी अपना बेड़ा पार कर लेते हैं। ऐसे मजबूत आधार को ही हमें अपना जीवन आधार चुनना चाहिए।
दान-पुण्य, धार्मिक कर्मकाण्ड और पूजा पाठ आदि तो धर्म का एक अंग मात्र हैं। वास्तविक धर्म तो कर्त्तव्य पालन, धर्म सेवा, सचाई और संयम में है इन्हें विचार और कार्यों में भली प्रकार स्थान देने वाला ही वास्तविक धर्मात्मा हो सकता है।
धर्म का आडम्बर बनाने से, अपने को धर्मध्वजी घोषित करने से कोई लाभ नहीं। धर्म को अपने रक्त में घुला डालो, अपने रोम-रोम में भर लो, जो कुछ सोचे जो कुछ करो वह सब धर्मानुकूल होना चाहिए।
दूसरों को अधर्माचरण से उन्नति करते हुए देखकर उनका अनुकरण करने के लिए मत ललचाओ। कांटे में लिपटा हुआ मांस का टुकड़ा खाकर मछली की जो दशा होती है, जाल के बीच में बिखरा हुआ अनाज खाकर चिड़िया की जो दशा होती है वही दशा अनीति द्वारा लाभ उठाने वालों की होती है। इस मार्गों का अनुसरण करने की कोई बुद्धिमान मनुष्य इच्छा नहीं करता।
सूजन के रोग से देह मोटी होने की अपेक्षा निरोग शरीर का दुबलापन अच्छा। धर्ममय जीवन में गरीब रहना, अधर्मी जीवन की सम्पन्नता से अच्छा है।
चित्र में दिखाया गया है कि धर्म किसी बाहरी वस्तु में नहीं रहता उसका निवास स्थान मनुष्य का अन्तरात्मा है। अन्तःकरण में धर्म की सुदृढ़ प्रतिष्ठापना होनी चाहिए और उसका प्रकाश हमारे रोम-रोम में, कण-कण में व्याप्त होना चाहिए। गायत्री का ‘यो’ अक्षर उसी सन्देश से पूर्ण है।