धीरस्तुष्टो भवेन्नैव ह्येकस्या हि समुन्नतौ ।
कृयता मुन्नति स्तेन सर्वास्वाशासु जीवने ।।
अर्थ—विज्ञ मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए। वरन् सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए।
ज्ञातव्य—
जैसे शरीर के कई अंग हैं और इन सभी का पुष्ट होना आवश्यक होता है, वैसे ही जीवन की आठ दिशाएं हैं उन सभी का विकास होना सर्वतोमुखी उन्नति का चिन्ह है। यदि पेट बहुत बढ़ जाय और हाथ पांव बहुत पतले हो जायं तो इस विषमता से प्रसन्नता न होकर चिन्ता ही बढ़ेगी।
इसी प्रकार कोई आदमी केवल धनी, केवल विद्वान्, केवल पहलवान बन जाय तो यह उन्नति सुखदायक न होगी। वह बलवान किस काम का जो दाने-दाने को मुहताज हो, वह विद्वान किस काम का जो रोगों से ग्रस्त हो, वह धनी किस काम को जिसके पास न विद्या है न धन?
जैसे किसान खेत की सब ओर से रखवाली करता है, सेनापति सब बुद्ध भागों की रक्षा करना है, वैसे ही जीवन धन की रक्षा और उन्नति सर्वतोमुखी होनी चाहिये, जिस ओर लापरवाही की जायगी उसी ओर से ऐसे छिद्र हो सकते हैं जो भरपूर धन सम्पत्ति की नाव को बीच में ही डुबो दे।
चित्र में एक मनुष्य के आठ बालक दिखाये गये हैं। पिता अपनी ही सन्तान पर समान रूप से ध्यान रखता है, सबको प्यार करता है और सबकी सुरक्षा एवं उन्नति का ध्यान रखता है उसी प्रकार हर बुद्धिमान मनुष्य को अपने आठों बलों की रक्षा एवं उन्नति का ध्यान रखना चाहिए।
आठ बालक चित्र में दिखाई दे रहे हैं। (1) स्वास्थ्य बल (2) विद्या बल (3) धन बल (4) मित्र बल (5) प्रतिष्ठा बल (6) चातुर्य बल (7) साहस बल और (8) आत्म बल है। मनुष्य को चाहिए कि अपने शरीर को स्वस्थ और पुष्ट बनावे, सुशिक्षा द्वारा अपनी बुद्धि का विकास करे, आजीविका का उचित प्रबन्ध करे, अपने परिवार तथा सन्मित्रों को सुसंगठित रखे, यश और साख को बढ़ाता चले, लोक व्यवहार में चतुरता बढ़ावे, धैर्य और हिम्मत को हाथ से न जाने दे, आत्मा को सात्विक गुणों से परिपूर्ण करता चले। इस प्रकार जीवन की आठों दिशाएं समुन्नत होने से संसार के सुखों का उपयोग करना मनुष्य के लिए सम्भव हो सकता है।
गायत्री का ‘धी’ शब्द सर्वतोमुखी उन्नति का सन्देश देता है। सबकी थोड़ी-थोड़ी उन्नति होना भी केवल एक उन्नति तक ही सीमित रहने की अपेक्षा अधिक अच्छा है।