[ 1 ]
अन्तर्यामी घट-घट वासी और सच्चिदानन्द ।
जगत पिता, न्यायी, दयालु, जग रक्षक आनंद कन्द ।।
ऐसे प्रभु का ध्यान दूर करता सारे पापों से ।
सदा बचाता रहता जग के भूल, शूल तापों से ।।
उसके चिंतन और मनन से है आत्मा बल पाती !
उसमें लय होने से आत्मा परमात्मा बन जाती !!
[ 2 ]
कर्म काण्ड, अर्चन, पूजन, पाथेय ज्ञान के पथ के ।
यह सब पहिए सदृश चल रहे शाश्वत जीवन रथ के ।।
इन सब से ऊपर उपासना की है राह निराली ।
जीवन मान सरोवर में हो जैसे स्वच्छ मराली ।।
संरक्षक के सदृश जीव पर है ईश्वर की सत्ता !
परम न्याय कारी होने में उसकी परम महत्ता !!
[ 3 ]
अपनी आत्मा में ही ईश्वर को पाया जा सकता ।
ईश्वर के आगे झुकता जो उसके आगे झुकता ।।
जो इसके आदेश मान लें वे प्रभु के हैं अनुचर ।
इसके स्वर में ही रहता है छिपा हुआ अनहद स्वर ।।
अन्तरात्मा की पुकार ही है ईश्वर की वाणी !
इसको सुनकर दुर्बल मानव हो जाता वरदानी !!
[ 4 ]
परमात्मा आत्मा, है इनके बीच तराजू झूली ।
प्रभु का गौरव और मनुज की सीमा जायं न भूली ।।
एक ओर है न्याय दूसरी ओर नियम है रहता ।।
इन पर तुलते कर्म मनुज के जो उनके फल सहता ।।
कर्मों के करने में रहता है स्वतंत्र यद्यपि नर !
पर फल के पाने में रहता न्याय नियम पर निर्भर !!
[ 5 ]
सरिता का तट, खिले कमल के फूल, मेघ आये झुक ।
एक शिला पर ध्यान मग्न बैठा निश्चल आराधक ।।
उसके पीछे स्वयं चतुर्मुख बैठी प्रभु की प्रतिमा ।
किरण जाल बिखराती नभ से भू तक उसकी गरिमा ।।
जिसे देखकर के साधक के उर में श्रद्धा जागी !
पूजे गये सदा इस जग में ये त्यागी अनुरागी !!