धियामृत्युं स्मरेन्मर्म जानीयञजीवनस्यच ।
तदा लक्षं समालक्ष्य पादौ सन्ततमाक्षिपेत् ।।
अर्थ—मृत्यु को ध्यान में रखे। जीवन के मर्म को समझे। और अपने लक्ष की ओर निरन्तर अग्रसर हो।
ज्ञातव्य—
मृत्यु से डरने की कोई बात नहीं क्योंकि कपड़ा बदलने के समान यह एक स्वाभाविक एवं साधारण बात है। परन्तु मृत्यु को ध्यान में रखना जरूरी है। सराय में ठहरे हुए मुसाफिर को जैसे रात को ठहर कर प्रातः काल ही कूच की तैयारी करती पड़ती है। और फिर दूसरी रात को दूसरी सराय में ठहरता है वैसे ही जीव भी एक जीवन छोड़ कर दूसरे जीवनों में प्रवेश करता रहता है।
क्षणिक जीवन में कोई ऐसा अनुचित कार्य न करना चाहिए जिससे आगे की प्रगति में बाधा पड़े। सराय के छोटे मोटे झगड़ों में उलझ कर जैसे मूर्ख मुसाफिर मुकदमा और जेल में फंस जाता है और अपनी यात्रा का उद्देश्य बिगाड़ लेता है, वैसे ही जो लोग वर्तमान जीवन के तुच्छ लाभों के लिए अपना परम लक्ष नष्ट कर लेते हैं वे मूर्ख हैं।
जीवन एक नाटक है। इस अभिनय को हमें इस प्रकार खेलना चाहिए कि दूसरों को प्रसन्नता हो और अपनी प्रशंसा हो। नाटक के खेल में सुख और दुख के अनेक प्रसंग आते हैं पर नट उनका अभिनय करते हुए भी वस्तुतः सुखी दुखी नहीं होता वैसे ही बिना किसी उद्वेग के अपने जीवन खेल के अभिनय में अपना कौशल प्रदर्शित करना चाहिए।
मृत्यु इस जीवन नाटक का अन्तिम पटाक्षेप हैं। इसके बाद नट को विश्राम मिलता है। मृत्यु जीवन का अन्तिम अतिथि है उसके स्वागत के लिए सदा तैयार रहना चाहिए अपनी कार्य प्रणाली ऐसी रखनी चाहिए कि किसी भी समय मृत्यु सामने आ खड़ी हो तो कोई पश्चात्ताप न हो।
जीवन एक महान सम्पत्ति है। चौबीस लक्ष योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् यह ईश्वरीय कृपा के रूप में बड़ी कठिनता से प्राप्त होती है। इसके एक एक क्षण को रत्नों से भी बहुमूल्य समझ कर समय का सदुपयोग करना चाहिए।
चित्र में एक विचारवान् मनुष्य मृत्यु और जिन्दगी को दो सखियां समझ कर उनका समान रूप से ध्यान रखता हुआ, समान सम्मान करता हुआ अपने पथ पर अग्रसर हो रहा है। न उसे अपने भूतकाल का शोक है न भविष्य की अधीरता। वह स्थिर गति, गम्भीरता, दृढ़ता और अविचल भावना से आगे बढ़ रहा है।