[ 1 ]
क्षण भर को हो शान्त गया है जगती का कोलाहल ।
मुग्ध-प्राय-सा हुआ पुरातन नभका नव अंतस्तल ।।
नीड़ों में जा कहीं छिपी है विहंगों की कल वाणी ।
प्रकृति खड़ी निष्पन्द ज्ञान का दीप जला कल्याणी ।।
जिससे अपना लक्ष्य समझलें पथ पर आने वाले !
कहीं बीच में रोक नहीं लें कटु कंटक मतवाले !!
[ 2 ]
निज तन मन से पुष्ट एक नर बैठा लिए कसौटी ।
यही देखने असली क्या है और कौन-सी खोटी ।।
इस पर ही घिस-घिस वह पीतल सोना परख रहा है।
परखे बिना किसी को उसने निर्णय नहीं कहा है ।।
यह विवेक की एक कसौटी रख करके ही बुधजन !
हो जाते हैं सिद्ध और करते हैं सत् का दर्शन !!
[ 3 ]
पकता रहता सदा बहुत-सा है भावों का सोना ।
किन्तु कसौटी निश्चय करती किसका है क्या होना ।।
शुद्ध कनक को बड़े चाव से स्वर्णकार गढ़ते हैं ।
उसके आभूषण देवों के मस्तक पर चढ़ते हैं ।।
नकली सोना कभी कहीं भी मान नहीं पाता है !
अपनी इच्छा को विवेक पर ज्ञानी अजमाता है !!
[ 4 ]
देश काल अभिरुचि के यद्यपि मापदण्ड हैं बदले ।
पर उनके वे मूल तत्व अब भी वैसे ज्यों पहले ।।
भाव, वाद, मत, पंथ, मार्ग, सिद्धान्त न जग में कम हैं ।
किन्तु उचित का निर्णय करते सूक्ष्म बुद्धि से हम हैं ।।
झूंठ सत्य की परख कसौटी से कुछ छिपी नहीं है !
पर उसका उपभोग विश्व में होता कहीं-कहीं है !!
[ 5 ]
है शब्दों के परे बताना शुभ विवेक की महिमा ।
न्याय, शील, निस्वार्थ सदय होने में इसकी गरिमा ।।
जीवन की चंचल लहरों में यह पतवार सदृश है ।
बोझिल नौका के हित सुस्थिर कर्णाधार सदृश है ।।
इष्ट यही है इस विवेक को जन-प्रतिजन अपनायें !
सफल करें प्रति कार्य और जीवन को सफल बनायें !!