सचित्र गायत्री-शिक्षा

इन्द्रियों का नियन्त्रण

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चपल इन्द्रियों पर सदैव ही रखो नियन्त्रण, यदि हो जाती प्रबल नहीं रह पाता बन्धन । तो वे अपने ही स्वामी को खा लेती हैं, निज सत्ता निज हाथों स्वयं मिटा देती हैं ।। आत्मा की सेविका उसी को विष बन जातीं ! जीवन देती नहीं किन्तु हैं उसे गिराती !

[ 2 ] सच तो यह है आत्मा की की इन्द्रिय अनुचर हैं, इनकी गति विधि उन पर ही रहती निर्भर है । जीवन को उत्कर्ष इन्हीं के द्वारा मिलता, है उत्थान प्रसून इन्हीं के द्वारा खिलता ।। कर्मों की प्याली में यह फल का रस भरती ! जीवन के सूखे मरुथल को जलमय करतीं !!

[ 3 ] इन्द्रिय का उपभोग स्वयं तो पाप नहीं है, इन्द्रिय जीवन को करती अभिशाप नहीं है । पर इनका संयम, समुचित व्यवहार कठिन है, रखना सात्विक, सरल, सुचारु विचार कठिन है ।। मर्यादा यदि टूट एक क्षण भी जाती है ! इन्द्रिय लिप्सा ही जग में विष कहलाती है !!

[ 4 ] वश में इन्द्रिय रखो, न इनके वश हो जाओ, जैसा चाहो तुम वैसा ही इन्हें चलाओ । ऐसा कहीं न हो कि कहीं हो इनके वश में, धब्बा कहीं लगा दो अपने स्वच्छ सुयश में ।। यह विष कन्या, मोह नहीं इनसे हितकारी ! इनमें जीवन भर उलझे रहते संसारी !!

[ 5 ] गायत्री का ‘दे’ अक्षर यह है सिखलाता, धन्य वही नर जो इन पर बन्धन रख पाता । है करता उपभोग तुष्टि देने आत्मा को, पूजित इनके द्वारा करता परमात्मा को ।। है निग्रह का नियम निभाना जिसको आता ! ऐसा साधक जग में गोस्वामी कहलाता !!

[ 6 ] रथ में घोड़े जुते बढ़े जाते हैं तत्पर, है वह चाह रहे जाना विपरीत राह पर । पर लगाम है लगी, नहीं, वे मुड़ पाते हैं, इसीलिए निज पथ पर ही बढ़ते जाते हैं ।। सच्चा स्वामी वही कि कर इनको वश में ले ! इनको गतिदे, यतिदे, मतिदे और सुयश दे !!

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