प्रकृतेस्तु भवोदारो नानुदारः कदाचन ।
चिन्तयोदार दृष्टयैव तेन चित्तं विशुद्ध्यति ।।
अर्थ—अपने स्वभाव को उदार रखो। अनुदार मत बनो। दूर दृष्टि से देखो। ऐसा करने से चित्त पवित्र होता है।
ज्ञातव्य—
अपनी रुचि इच्छा और मान्यता को ही दूसरों पर लादना अपने गज से सबको नापना, अपनी ही बात को अपने ही स्वार्थ को सदा ध्यान में रखना अनुदारता का चिन्ह है। अनुदारता पशुता की प्रतीक है।
दूसरों के विचारों, तर्कों, स्वार्थों और उनकी परिस्थितियों को समझने का उदारता पूर्वक प्रयत्न किया जाय तो अनेकों झगड़े सहज ही शान्त हो सकते हैं। सहिष्णुता तथा समझौते की नीति पर चलते हुए शान्ति पूर्वक रहा जा सकता है।
जितने अंशों में दूसरों से एकता हो, सर्व प्रथम उस एकता को प्रेम और सहयोग का माध्यम बनाया जाय। मतभेद के प्रश्नों को पीछे के लिए रखा जाय और स्वस्थ मनःस्थिति में उन्हें धीरे-धीरे सुलझाया जाय। सामाजिकता का यही नियम है। जिद्दी, दुराग्रही, घमण्डी, संकीर्ण भावना वाले मनुष्य गुत्थियों को सुलझाने तथा दूसरों का सहयोग पाने में प्रायः वंचित ही रहते हैं।
आज का, इसी समय का, तुरन्त का लाभ देखना और भविष्य के दूरवर्ती परिणामों पर विचार न करना अदूरदर्शिता है। उसी के चंगुल में फंसकर मनुष्य अपना स्वास्थ्य, यश, विवेक तथा स्थायी लाभ खो बैठता है। आज के क्षणिक लाभ पर, भविष्य के चिरस्थायी लाभ को गंवा देने वाले मूर्ख मनुष्य ही बीमारी, अकाल मृत्यु, कंगाली, बदनामी, घृणा एवं अधोगति के भागी बनते हैं।
किसान, विद्यार्थी, ब्रह्मचारी, व्यापारी, वैद्य, नेता, तपस्वी आदि सभी बुद्धिमान आज की थोड़ी असुविधाओं का ध्यान न करके भविष्य के महान् लाभों का ध्यान रखते हैं और थोड़ा-सा त्याग करके बहुत लाभ प्राप्त करने की नीति को अपनाते हैं।
चित्र में एक भद्र पुरुष आंखों पर दूरबीन लगाकर दूरस्थ वस्तुओं को देख रहा है, भविष्य पर ध्यान रखने वाला मनुष्य ही वर्तमान समय और साधनों का ठीक उपयोग कर सकता है। लक्ष को स्थिर करके उस तक पहुंचने का निरन्तर प्रयत्न करना ही सफलता का मार्ग है। उस पर वे ही चल सकते हैं जो अदूरदर्शिता और अनुदारता की भयंकर त्रुटिओं के चंगुल से अपने को छुड़ा लेते हैं। गायत्री का ‘प्र’ अक्षर इसी शिक्षा का केन्द्र है।