वसतां न पवित्रः सन् वाह्यतोऽभ्यन्तरस्तथा ।
यतः पवित्रतायां हि राजतेऽति प्रसन्नता ।।
अर्थ—मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए। क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है।
ज्ञातव्य—
पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता शीतलता, शान्ति, निश्चिन्तता, प्रतिष्ठा और सचाई छिपी रहती है। कूड़ा, करकट, मैल, विकार, पाप, गन्दगी, दुर्गन्ध, सड़न, अव्यवस्था, एवं घिचपिच, से मनुष्य की आन्तरिक निष्कृष्टता प्रतीत होती है।
आलस्य और दरिद्र, पाप और पतन जहां रहते हैं वहीं मलीनता या गन्दगी का निवास रहता है। जो इस प्रकृति के हैं उनके वस्त्र, घर, सामान, शरीर, मन, व्यवहार, वचन, लेन देन सबमें गन्दगी और अव्यवस्था भरी रहती हैं, इसके विपरीत जहां चैतन्यता, जागरूकता, सुरुचि, सात्विकता होगी वहां सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जायगा। सफाई सादगी एवं सुव्यवस्था में ही सौन्दर्य है। इसी को पवित्रता कहते हैं।
मन्दे खाद से गुलाब के सुन्दर पुष्प पैदा होते हैं जिसे मलीनता को साफ करने में जिसे हिचक न होगी वही सौन्दर्य का सच्चा उपासक कहा जायगा। मलीनता से घृणा होनी चाहिए पर उसे हटाने या उठाने में रुचि होनी आवश्यक है। जो पवित्रता से प्रेम करता है उसे गन्दगी को हटाने में तत्परता प्रकट करके ही अपने प्रेम की परीक्षा देनी पड़ती है। आलसी लोग अक्सर फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर पर्दा डालते हैं।
पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है। आत्मा स्वभावतः पवित्र एवं सुन्दर है, इसलिए आत्म परायण व्यक्ति के विचार व्यवहार और पदार्थ भी सदा स्वच्छ एवं सुन्दर रहते हैं। गंदगी उसे आंखों देखी नहीं सुहाती, गन्दगी में उनको सांस घुटता है इसलिए वह सफाई के लिए दूसरों का आसरा नहीं टटोलता अपनी हर वस्तुओं को स्वच्छ बनाने के लिए वह सबसे पहले अवकाश निकालता है।
चित्र में पवित्रता का प्रतीक एक सुन्दर वट वृक्ष दिखाया गया है। उसकी छह शाखाएं हैं- 1—शारीरिक (शरीर तथा वस्त्र) 2—मानसिक (विचार तथा भाव) 3—आर्थिक (आजीविका तथा लेन देन) 4—सामाजिक (सेवा तथा सहयोग) 5—व्यवहारिक (वचन तथा कर्म) 6—आध्यात्मिक (प्रेम तथा सचाई) हर गायत्री उपासक को इन छह पवित्रताओं को अपने जीवन में ओत प्रोत करने का प्रयत्न करना चाहिए।