सचित्र गायत्री-शिक्षा

उदारता और दूरदर्शिता

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[ 1 ] रख कर हृदय उदार बढ़ो जग के प्रांगण में । नहीं स्वार्थ की पशुता आने दो जीवन में ।। पहचानो औरों की स्थिति उनकी लाचारी । बनकर रहो सहिष्णु समझकर गति-विधि सारी ।। जग के सब व्यापार इसी विधि से चलते हैं । सुमन बिछाने वाले ममता में पलते हैं ।।

[ 2 ] प्रेम और सहयोग मनुजता के वैभव हैं । इनको ही अपनाकर पाते नर गौरव हैं ।। क्षणिक लोभ के लिए न स्थायी लाभ गंवाना । आज कष्ट सहकर भविष्य को श्रेष्ठ बनाना ।। सामाजिकता का स्वाभाविक यही नियम है । जीवन मर्यादाओं का भी यह ही क्रम है ।।

[ 3 ] दुराग्रही नर अहंभाव से कटु बन जाते । मानव सुलभ ममत्व नहीं ऐसे नर पाते ।। रहता है व्यक्तित्व नहीं उनका आकर्षक । उनके आगे शीश नहीं पा सकता है झुक ।। दिव्य दृष्टि से नहीं दूर तक यह देख सकते । वर्तमान की मोहकता में फंसकर रुकते ।।

[ 4 ] क्षण भर के सुख दुख पर कब जीवन अवलम्बित । दो क्षण की ही हार जीत पर लोक न आश्रित ।। वर्तमान को देख भविष्यत् जो ठुकराते । कभी नहीं ऐसे नर जग में आदर पाते । बुद्धिमान नर प्रायः आगे देखा करते । वर्तमान के संघर्षों से कभी न डरते ।।

[ 5 ] देख रहा नर दूर स्वयं दूरबीन लगाये । जिससे अपना लक्ष्य भली विधि वह लख पाये ।। वह अपने पथ की बाधाओं को भी जाने । अपने साधन और शक्ति का बल पहचाने ।। साहस लेकर इष्ट पन्थ पर बढ़ता जाये । सुखी बने खुद और सभी को सुखी बनाये ।।
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