सचित्र गायत्री-शिक्षा

स्वाध्याय और सत्संग

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[ 1 ] जिसका जैसा संग बनेगा वह नर वैसा । युग-युग का अनुभव बतला आता ऐसा ।। पड़ता बहुत प्रभाव स्थान का और साथ का । बनता है व्यक्तित्व इन्हीं से सदा आपका ।। करता है सत्संग बुद्धि का उदय सदा ही ! है दुष्टों का संग बुला लाता विपदा ही !!

[ 2 ] अच्छा वातावरण बहुत ही है आवश्यक । उन्नति के सब मार्ग बिना इसके जाते रुक ।। सज्जन का सत्संग आत्मा का उन्नायक । स्वाध्याय इच्छा अभिरुचि का श्रेष्ठ विधायक ।। महा पुरुष की पुस्तक भी उसकी प्रतीक है ! देती उसके ही समान वह सदा सीख है !!

[ 3 ] चिंतन, मनन, विचार आत्म-सत्संग स्वयं है । आत्मोन्नति के लिए न यह आवश्यक कम है ।। स्वयं मनुज भी बन सकता है अपना सहचर । आत्म निरीक्षण, आत्म नियंत्रण में हो तत्पर ।। दुष्ट संग तो महानाश का आमंत्रण है ! सद्विचार में लगे सफल तो वह ही क्षण है !!

[ 4 ] कलुषित वातावरण बुद्धि पर धूलि उड़ाता । हृदय मलिन होता विवेक भी है ढक जाता ।। स्वाध्याय सत्संग उसे फिर शुद्ध बनाता । करता दूर विकार ज्ञान की ज्योति जगाता ।। यदि न करें स्वाध्याय ब्राह्मण शूद्र सदृश है ! होता उदय प्रमाद नष्ट हो जाता यश है !!

[ 5 ] सद् भावों के पास कभी कुविचार न आते । भरी सराय विलोकि लौट आगन्तुक जाते ।। उत्तम पुरुषों की उत्तम विषयों पर चर्चा । बन जाती है स्वयं मनोरम पूजा अर्चा ।। गायत्री आदेश सदा इसका देती है ! करो सदा सत्संग यही सब से कहती है !!
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