उठो! उठो!! हे देवमनुज तुम (kavita)

September 1986

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ऊंचा मस्तक चौड़ी छाती, फौलादी हैं बांहें। देव मानवो उठो तुम्हीं पर, सबकी टिकी निगाहें। शक्ति-पुंज तुम करो सामना, बाधायें यदि आयें। देख तुम्हारे मन की दृढ़ता, पर्वत शीश झुकायें।

यह कुरीतियां रोक न सकतीं, कभी तुम्हारी राहें। देव मानवो उठो तुम्हीं पर, सबकी टिकी निगाहें।।

सृजन-शक्ति अद्भुत है तुम में, तुम हो युग निर्माता। कब से तुम्हें पुकार रही है, प्यारी भारत माता। आज जागरण की बेला में, लो नूतन अंगड़ाई। देश समाज मांगता तुमसे, शक्ति भक्ति तरुणाई।

अनय आंधियां भी अजमालें, यदि अजमाना चाहें। देव मानवो उठो तुम्हीं पर, सब की टिकी निगाहें।।

जीवन जल से तुम्हें सींचनी, मानवता की क्यारी। मानवता के घर से लाना है, पूनम की उजियारी। नैतिकता कर्तव्य निभाने, कालकूट पी जाना। लेकिन बर्बरता के आगे, कभी न शीश झुकाना।

जीते जी अनसुनी न करना, दीन हीन की आहें। देव मानवो उठो तुम्हीं पर, सब की टिकी निगाहें।।

ज्ञान-मशाल हाथ में लेकर, आगे बढ़ते जाना। मन-मन्दिर में संकल्पों के, पूजा-थाल सजाना। श्रद्धा दृढ़ विश्वास तुम्हारा, जीवन का हो संबल। हृदय सरोवर में खिल जायें, श्रम संयम के शतदल।

जीवन का हो लक्ष्य तुम्हारा, सब से नेह निबाहें। देव मानवो उठो तुम्हीं पर, सब की टिकी निगाहें।।

नयी विचार क्रान्ति करके तुम, मन की भ्रान्ति भगाओ। आत्म-त्याग पौरुष तप-बल से, सोया भाग्य जगाओ। जाति-पांति के ऊंच-नीच के, सारे बन्धन तोड़ो। रखो मनोबल अपना ऊंचा, विष-धारा को मोड़ो।

सुन न पड़े मानव देहरी पर, निर्मम नियति कराहें। देव मानवो उठो तुम्हीं पर, सब की टिकी निगाहें।।

*समाप्त*


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