निर्धन वह नहीं जिसके पास उपयोग के साधन कम हैं, वरन् वह है जिसकी तृष्णा अधिक है।
निष्ठावान परिजनों को इस अनुदान के बदले कुछ देने की बात भी सोचनी चाहिए। गुरु दीक्षा के बदले गुरुदक्षिणा देनी पड़ती है। यहाँ तो दक्षिणा युग परिवर्तन के निमित्त समयदान, अंशदान के रूप में, लोभ-मोह के पाश से छूटने के रूप में माँगी जा रही है। दीक्षा यों पहले भी कितने ही ले चुके हैं। अब जिनके साथ प्रत्यक्ष संपर्क नहीं है, उन्हें सूक्ष्म रूप में वह अनुदान पहुँचाया जा रहा है। पारस के साथ संपर्क होने पर जंग लगा लोहा भी सोना बन जाता है। ईंधन आग से मिलते ही जलने लगता है। अगले दिनों हमारे व परिजनों के बीच यही आदान-प्रदान की प्रक्रिया चलनी है। मिशन के लिए अधिकाधिक समयदान, अंशदान के रूप में गुरुदक्षिणा की बात सभी को सोचनी चाहिए एवं देव मानव बनने के इस सुयोग को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।