हैराल्ड हाब्स के अनुसार- बीस चापलूसों की अपेक्षा एक निन्दक भला है, जो कमियाँ दर्शाता रहकर कसौटी का कार्य करता है। जिनमें निन्दा सहन करने की शक्ति नहीं है अथवा जिनके निन्दक नहीं है, उनकी प्रगति में सन्देह है। प्रशंसकों और चापलूसों द्वारा वस्तुस्थिति को सदैव बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किये जाने से अहं, दंभ और प्रदर्शन की वृत्ति पनपती हैं। इससे व्यक्ति का पतन अवश्यंभावी है।
हालैण्ड के पास भूमि की कमी थी। उसकी अधिकाँश जमीन समुद्र की सतह से नीचे है। उथले समुद्र ने सुविस्तृत क्षेत्र पर कब्जा कर रखा था। उस देश के निवासियों ने सोचा कि समुद्र द्वारा अधिग्रहण की गई जमीन को फिर से वापस लौटाया जा सकता है। टिटहरी के अंडे समुद्र द्वारा वापस किये जाये, अगस्त्य मुनि द्वारा समुद्र सोखे जाने का पौराणिक उपाख्यान यथार्थता बन कर उभरा। उस देश के निवासियों ने योजना बनाई कि लगभग 750 मील चौड़े और 200 मील लम्बे भूखण्ड को समुद्र के अजगर को सदा निगले ही नहीं रहने देना चाहिए। इसके लिए सुनियोजित योजना बनी। एक सुविस्तृत और लोहे जैसे मजबूत बाँध का निर्माण किया गया। जब तक समुद्र की लहरें पीछे हटती थी इतनी ही देर में उस प्राचीर को कुछ न कुछ ऊँचा उठा ही लिया जाता रहा। समय तो लगा और साधन भी खपे किन्तु श्रमदान द्वारा कार्य पूरा होकर रहा। साथ ही पवन चक्कियों एवं अन्य पम्पों द्वारा पानी उलीचने का कार्य भी चालू रखा गया। प्रकृति ने साथ दिया। समुद्र से छीनी गई जमीन पर अब अच्छा खासा विकसित राज्य खड़ा है और सोना उगलने वाले कारखाने चल रहे हैं। इसमें प्रधान श्रेय उन नागरिकों को दिया जा सकता है जिन्होंने बिना थके, हठीले समुद्र से सामूहिक श्रमदान के माध्यम से लड़ाई लड़ी और विजय श्री वरण करके दिखाई।
यह प्रयोग भारत में निरन्तर होता रहा है। ब्राह्मण और साधुओं की जीवन वाहिनी अपने इस प्रण को पूरा करके दिखाती रही हैं कि राष्ट्र को हर कीमत पर जीवंत और जागृत रखेंगे। उनने अपरिग्रही, नितान्त निर्धनों जैसा जीवन जिया और इतना कठोर श्रम किया जिसके लिए अलग से ‘तपश्चर्या’ शब्द गढ़ना पड़ा। सतयुग इन्हीं प्रयासों की परिणति थी। ईसाई पादरी एक लाख की संख्या में उन्हीं पद चिन्हों पर चल रहे हैं और शेष एक तिहाई जन समुदाय को भी ईसाई धर्म में दीक्षित कर लेने का दावा कर रहे हैं। इस शक्ति को निरर्थक भी गँवाया जा सकता है और भले चंगे लोगों के सिरों पर अनौचित्य की विडंबनाएं थोप देने में भी खपाया जा सकता है। पर यदि देश के सात लाख गाँव में से 60 लाख संत-बाबा शिक्षा, स्वच्छता, कुरीति उन्मूलन जैसे कार्यों में लग सकें तो उस कर्त्तव्य के लिए देश का बच्चा-बच्चा, कण-कण उनका कृतज्ञ हो सकता है।
शिक्षा संवर्धन, खर्चीली शादियों का उन्मूलन, नशेबाजी, ऊँच नीच, पर्दा प्रथा, भिक्षा व्यवसाय, अस्वच्छता निवारण ऐसे कार्य हैं जिन्हें उथले साधनों के बलबूते समाहित नहीं किया जा सकता। इसके लिए रचनात्मक और सुधारात्मक कदम क्रान्ति स्तर के उठाने पड़ेंगे। प्रचार से लेकर कानूनी अनुबंधों, लेख-भाषणों तक के अनेक छुटपुट प्रयत्न चल चुके हैं और चल रहे हैं, पर यदि कुछ ठोस काम किया जाता है तो ऐसा समुदाय संगठित करना पड़ेगा जो स्वयं तो सुधरे और बदले में, साथ ही अपने प्रभाव क्षेत्र में भी आग्रह अनुरोध से लेकर विरोध असहयोग तक के कदम उठा सके। क्रान्ति चाहे नैतिक स्तर की हो, बौद्धिक स्तर की या सामाजिक क्षेत्र की। उसके लिए भी वैसी ही योजना बनानी और कार्यान्वित करनी होगी जैसी कि राजनैतिक क्रान्तियों की व्यवस्थापूर्ण योजनाएँ जन-शक्ति के सहारे बनती और कार्यान्वित होती रही हैं।