भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है, आरण्यक पद्धति से गुरुकुलों में शिक्षण एवं समाज को ऊँचा उठाने वाले नर रत्नों का सृजन। ऋषि परम्परा के आश्रमों में ज्ञान, विज्ञान ही नहीं पढ़ाया जाता था, अपितु व्यक्तित्व को उभारने की प्रक्रिया भी सम्पन्न होती थी। संदीपन आश्रम में कृष्ण एवं सुदामा का, विश्वामित्र के गुरुकुल में राम एवं लक्ष्मण का, दुर्वासा ऋषि के आश्रम में परशुराम का, धौम्य ऋषि के पास भागीरथ का एवं अपने पिता लोमश ऋषि के पास शृंगी ऋषि के सर्वांगपूर्ण शिक्षण-प्रशिक्षण के उदाहरण उसी परम्परा के परिचायक हैं।
शिक्षा, पत्राचार विद्यालय भी देते हैं और ट्यूशन मास्टर लगाकर घर पर भी पढ़ा जा सकता है। किन्तु वह प्रशिक्षण कुछ और ही है जो मस्तिष्क, हृदय, प्राण और अन्तःकरण तक पहुँचता एवं शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच आदान-प्रदान करता है। जीवन्त व्यक्तित्व और ऊर्जा भरा वातावरण कुछ ऐसा प्रभाव छोड़ता है जिसे अनुदान स्तर का कहा जा सके। आग से सट जाने पर ईंधन जलने लगता है। बाढ़ में नाव तैरने लगती है। घटाएँ जिस भी खेत पर बरसती हैं, उसी में कीचड़ बहार देने लगती है। यह संपर्क का प्रभाव है। शिक्षण संकेत मात्र से यह प्रयोजन पूरे नहीं होते। गुरुकुलों और आरण्यकों की खदानें नर रत्न उगलती थीं। उन्हीं परम्पराओं का निर्वाह सप्तऋषियों की तपस्थली पर बना शान्ति कुंज कर रहा है।
इन दिनों शान्ति कुंज नालन्दा, तक्षशिला विश्व विद्यालयों के स्तर का काम कर रहा है। एक लाख वरिष्ठ परिजनों को युग नेतृत्व कर सकने की समर्थता प्रदान करने वाली शिक्षा का क्रम यहाँ चल रहा है। जागृत आत्माओं को समय रहते इसमें सम्मिलित एवं लाभान्वित होने के लिए आग्रह किया जा रहा है। इसे गुरु पूर्णिमा का निमंत्रण आह्वान माना जाय और प्रस्तुत अवसर से लाभान्वित होने में चूका न जाय। अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले मूर्धन्यों में वे सभी गिने जाने योग्य होने चाहिए, जो इन पंक्तियों को ध्यानपूर्वक पढ़ रहे हैं।
सुसंस्कारी आत्माओं में से प्रत्येक से इस वर्ष कहा गया है कि वे अपना निजी प्रज्ञा प्रशिक्षण एक वर्ष के भीतर पूरा करने के लिए समय निकाल लें, ताकि पुराने परिपक्व प्रथम पंक्ति में निश्चिन्त हो लें। इसके बाद के शेष 14 वर्ष नई पीढ़ी के लिए है। विश्व की वर्तमान 480 करोड़ आबादी अगले 14 वर्षों में लगभग सात सौ करोड़ हो जायेगी। तब अपना कार्यक्षेत्र भारत की बीस भाषाओं तक सीमित न रह कर समस्त विश्व की 600 से भी अधिक भाषाएँ बोलने वाली जनता तक फैल जायेगा। अतएव युगसृजेताओं की आवश्यकता बढ़ती ही जायेगी और उसकी पूर्ति के लिए अपनायी जाने वाली तत्परता भी। अस्त हममें से किसी को भी पिछली पंक्ति के लिए मुहूर्त नहीं निकालना चाहिए, वरन् समय रहते निपट लेना चाहिए, ताकि अगली पंक्तियों, पीढ़ियों के लिए जगह खाली मिल सके। आशा की गई है कि इस गुरु पर्व पर जो अदृश्य का आमंत्रण सुन-समझ सके होंगे, वे इस अवसर का लाभ उठाने के लिए प्राथमिकता देंगे और आतुर कदम बढ़ायेंगे।