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September 1986

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बुद्धिमान मनुष्य कहलाता है और दयावान भगवान।

धनी वह है जो सोचता है कि अपनी सामर्थ्य से हर किसी के आँसू पोंछ दूँ।

ओछा मनुष्य अपना बखान बहुत करता है, पर आदर्शों के लिए साहस दिखाने में उसकी हिम्मत नहीं पड़ती। सच्चा आदमी साहसी होता है। पर हर साहसी सच्चा भी हो यह आवश्यक नहीं।

अपने सबसे नजदीक अपना मन है। वहीं घनिष्ठ, आत्मीय एवं उत्थान पतन में साझीदार भी है। ऐसी दशा में सबसे प्रथम हाथ भी उसी पर डाला जाना चाहिए तथा बदला और सुधारा भी उसी को जाना चाहिए। यह सरल भी है, क्योंकि निकटवर्ती, आत्मीय, अविच्छिन्न पर जितना प्रभाव अपना होता है उतना और किसी पर नहीं। मन का सबसे बड़ा खोट यह है कि वह जीवन सम्पदा के सदुपयोग की योजना नहीं बना पाता। आम लोगों की तरह इतना ही सोचता रहता है कि लोभ और मोह से प्रेरित होकर धन संचय, परिवार पोषण, विलास और ठाठ बाट में ही संलग्न रहा जाय। अपना श्रम, समय, साधन और बुद्धि कौशल पूरी तरह उसी में खपाते रहा जाय। विचारणा के इस खोट से ही समस्त क्रिया-कलाप भी वैसे ही बन पड़ते हैं। चिन्तन बदले तो क्रियाकृत्य में भी अन्तर पड़े। नेतृत्व सर्वप्रथम अपने मन का करना चाहिए और उसे इस तथ्य को समझना चाहिए कि ईश्वर प्रदत्त इस अमानत को आत्म परिष्कार एवं लोक मंगल में ही लगाया जाना चाहिए। बार-बार कहते रहने और इस परिवर्तन के दूरगामी परिणाम सुझाते रहने पर वह परामर्श भी मान सकता है और दबाव डालने, तपस्वी जैसा संकल्प कर बैठने की धमकी देकर विवश भी किया जा सकता है। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह और परिवार के लिए “एक आँख प्यार की- दूसरी सुधार की” रखते हुए उसको सदस्यों के लिए सहमत ही नहीं बाधित भी किया जाय तो इस सफलता की परिणति अपनी प्रतिभा में चार चाँद लगाने जैसी होगी। उसका प्रयोग मित्र-परिचित पड़ौसी संबंधी पर ही नहीं, अपरिचित लोगों के साथ संपर्क साधते हुये किया और मनाया-झुकाया उन्हें भी जा सकता है। नेतृत्व का सार संक्षेप यही है।

आत्मानुभूति यह भी होनी चाहिए कि सबसे बड़ी पदवी इस संसार में मार्गदर्शक की है। नाविक और अध्यापक जो स्नेह सम्मान पाते हैं। अगणितों को कृतज्ञ बनाते और ठिकाने लगाते हैं, वह साधारण नहीं- असाधारण बात है। उतना कर पाना आत्म संतोष के लिए सबसे बड़ा आधार है। लोक श्रद्धा इसी के सहारे अर्जित होती है। संसार में जो भी महामानवों की श्रेणी में पहुँचे हैं, उन सभी को जन समर्थन- जन सहयोग निश्चित रूप से मिला है। यह किस प्रकार सुलभ संभव है, उसकी विद्या अनुभव-अभ्यास में उतार लेना महती सफलताओं में एक गिनी जा सकती है।

ध्यान से देखा जाय तो भौतिक प्रगति के समस्त क्रिया कलाप अपनी गरिमा दूसरों की तुलना में बढ़ी-चढ़ी सिद्ध करने के लिए ही किये जाते हैं। मनुष्य की निजी आवश्यकताएँ तो जरा-सी हैं। वे दस मुट्ठी अनाज, छह गज कपड़े और रात बिताने के आच्छादन भर से पूरी हो जाती हैं। फिर वैभव बटोरने की इतनी दौड़ धूप किसलिए? इसके पीछे अन्तराल की गहराई में छिपी एक ही महत्वाकाँक्षा काम करती रहती है कि दूसरे हमें अपने से बड़ा, अमीर, समझदार, साहसी, क्रियाकुशल, सुन्दर सौभाग्यशाली आदि मानें। वैभव के सहारे जहाँ दूसरों से बड़प्पन प्राप्त होता है वहाँ अपना गर्व गौरव- अहं भी तृप्त होता है। किन्तु विडम्बना यह है कि ये भौतिक उपार्जन अपने निज के किसी काम नहीं आते। उनसे दूसरों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करने का क्षणिक-सा खेल मेल भर बनता है। यही आम नीति है। प्रचलन इसी का है। अनेकों को इसी राह पर चलता देखा जाता है। इसलिए अपना मन भी उसी अनुकरण के लिए ललचाता और मचलता रहता है। छोटे बच्चों को रंग-बिरंगे चाबी वाले खिलौने ही तो मन भाते हैं। किन्तु वयस्क उस खिलवाड़ में रस नहीं लेते। उन्हें मिट्टी का नहीं सचमुच का बैल-घोड़ा चाहिए, जो अधिक दाम में खरीदे जाते हैं और उनकी साज सँभाल भी तत्परता चाहती है। नेतृत्व सचमुच का हाथी है। उसे खरीदने और सवारी करने पर बड़प्पन दूर से ही हर किसी को दृष्टिगोचर होता है।


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