लोक सेवा में सच्ची भगवद्-भक्ति

September 1986

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भगवान की भक्ति के नाम पर लोग ऐसी विडम्बनाएँ रचते रहते हैं, जिसमें पूजा पाठ जैसी कुछ खिलवाड़ तो होती रहे, पर बदले में ऋद्धि सिद्धियाँ, चमत्कारों और वरदानों का जखीरा लूट के माल की तरह हाथ लगे। कई स्वर्ग और मुक्ति का वैभव स्वर्ग लोक में पहुँच कर बटोरना चाहते हैं। कइयों को दर्शन की इच्छा होती है मानो किसी रूपसी की समीपता का रसास्वादन करना चाहते हों। दस पैसे की मिठाई मनौती के लिए चढ़ाकर मालामाल बनने और मुफ्त में बढ़ चढ़कर सफलताएँ प्राप्त करने की हविश तो इस समुदाय के अधिकाँश लोगों को होती है। कहीं-कहीं रात भर नाच कूद चलते हैं ताकि भगवान की नींद हराम करके जितना कुछ लपक सकना संभव हो, लपक लिया जाय। बच्चों को बहकाने-फुसलाने या चिड़ियाँ मछलियाँ पकड़ने की धूर्त्तता तो कितने ही करते रहते हैं। भगवान की दुकान को आँखों में धूल झोंककर लूट लाने का कुचक्र तो उस क्षेत्र में आमतौर से रचे जाते देखा जा सकता है।

यथार्थता की कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त स्पष्ट होता है कि भगवान का दरबार “अन्धेर नगरी-बेबूझ राजा” की उक्ति चरितार्थ नहीं करता। वहाँ उन्हीं को अनुकम्पा का अनुदान मिलता है, जिन्हें प्रामाणिकता और उदारता की कसौटी पर खरा कस लिया जाता है। भक्ति का सीधा अर्थ सेवा है। सेवा अर्थात् परमार्थ लोकमंगल। यह उन्हीं से बन पड़ता है, जो अपने को हर दृष्टि से संयम की आग में तपाते हैं। औसत नागरिक का जीवन जीकर उससे ऐसा कुछ बचा लेते हैं जिसे समयदान, अंशदान के रूप में दरिद्र नारायण के चरणों पर अर्पित किया जा सके। सत्प्रवृत्ति संवर्धन में उसका बढ़ा चढ़ा उपयोग किया जा सके। सच्चे भगवद्-भक्त इसी स्तर के होते रहे हैं और बदले में आत्म संतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह का प्रत्यक्ष प्रतिफल उपलब्ध करते रहे हैं।

सुदामा का उदाहरण सामने है। उनका विशालकाय गुरुकुल था। सुयोग्य अध्यापन और वातावरण जहाँ भी होगा, वहाँ छात्रों की कमी न रहेगी। पुरातन काल में गुरुकुल-विश्व विद्यालय ही छात्रों के शिक्षण और निर्वाह की दुहरी व्यवस्था वहन करते थे। पर उस क्षेत्र में उदार चेताओं की कमी पड़ जाने से गुरुकुलों के ऊपर भारी आर्थिक कठिनाई लदी रहने लगी। आसरा किसका लिया जाय। सोचा गया कि भगवान को पकड़ा जाय। वे द्वारिका पहुँचे। कृष्ण ने स्थिति को जाना और अपनी संपदा कुटुम्बियों के विलास हेतु छोड़ने की अपेक्षा यह उचित समझा कि जो पास में है वह सब कुछ उच्च आदर्श के हेतु विसर्जित कर दिया जाय। द्वारिकापुरी की सारी सम्पदा उठ कर सुदामापुरी चली आई। लक्ष्मी नारायण की अनुकम्पा ऐसों को ही प्राप्त होती है। जेब कटी का रास्ता अपनाने वालों को नहीं।

भक्तों में एक आते हैं- विभीषण। उनने अनीति में सगे भाई तक का साथ न दिया। अपमान और अभाव सहते रहे और समय आने पर अपनी समूची वफादारी उस न्याय और नीति के पक्ष में समर्पित करदी, जिसे प्रकारान्तर से भगवान कहते हैं। भगवान के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं आता। उसे सोने की लंका और अद्वितीय विदुषी मंदोदरी का लाभ मिला। ऐसे ही प्रसंग सिद्ध करते हैं कि भगवान भक्त-वत्सल और विभूतियों के अधिपति हैं।

सच्चे भक्तों की श्रेणी में सुग्रीव का नाम आता है। राम के साथ अनीति हुई। दुष्टों ने सीता हरण कर लिया। खोजने के लिए दूतों और लड़ने के लिए सैनिकों की आवश्यकता हुई। भक्त सुग्रीव ने जो कुछ भी अपने पास था मुक्तहस्त से दिया। दानी की खाली हुई जेबें भगवान भर देते हैं। सुग्रीव को अपना खोया हुआ राज्य और परिवार वापस मिल गया। भगवान की उदारता में कमी नहीं। पर उसे पाने के लिए घण्टी हिला देना भर काफी नहीं। सदुद्देश्यों के लिए बढ़ चढ़कर त्याग बलिदान प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

मनुष्यों की चालाकी में कमी नहीं। उनका बस चले तो उनके निवास और परिवार तक को बेच खायें। पर भक्त ऐसा नहीं कर सकते। सुग्रीव के सभी साथी सहचर समुद्र पर पुल बनाने और लंका का दमन करने के लिए निहत्थे होते हुए भी गये थे। नल नील ने इंजीनियर का कौशल दिखाया था। बेचारी गिलहरी तक बालों में बालू भर कर समुद्र पाटने में सहायता करने के लिए पहुँची थी। उसने राम की हथेली पर बैठकर दुलार भरा वह प्यार पाया जिसके लिए तथाकथित योगी-यती तरसते ही रहते हैं। भगवान का दर्शन पाने की जिन्हें सचमुच ललक है, उन्हें गिलहरी जैसा पुरुषार्थ और जटायु जैसा अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए, चाहे प्राण भले ही देने पड़ें। घायल जटायु को भगवान ने अपने आँसुओं से स्नान कराया था। जो इस झंझट से बचकर पंचामृत से शालिग्राम को स्नान कराने पर सम्पदाओं की गठरी लूटना चाहते हैं, उन्हें उनकी क्षुद्रता उस स्थान तक पहुँचने ही नहीं देती, जहाँ वे पहुँचना चाहते हैं।

हनुमान का समर्पण सर्वविदित है। राम का पक्ष न्याय का था और रावण का अन्याय का। धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार का और उसके अनुयायियों का कर्त्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उठानी पड़ती हो। हनुमान ने यही किया। वे किसी व्यक्ति विशेष के दास या चाकर नहीं थे उन्होंने नीति को विजयी बनाने के लिए लंका दहन, संजीवनी पर्वत उखाड़ने से लेकर अनेकानेक कष्ट सहे। पर क्या वे घाटे में रहे? सुग्रीव के यहाँ साधारण सेवक की तरह कार्य करने का बंधन छूटा और वे देवताओं की गणना में गिने गये। राम पंचायत में छठे सदस्य बने और संसार भर में पूजे गये। जितने मंदिर राम के हैं उससे कहीं अधिक हनुमान के हैं। उन्हें जो बल, पराक्रम, विवेक, कौशल, यश प्राप्त हुआ वह सब उस भक्ति का प्रतिफल था जो सच्चे अर्थों में कर्त्तव्यपरायणता और उदार साहसिकता से भरी पूरी थी।

निषादराज की कथा प्रख्यात है। राम मिलन के लिए सेना समेत भरत के संबंध में उसने समझा कि वे लोग राम को मारकर निष्कंटक राज करने जा रहे हैं। निषाद ने भरत की सारी सेना को गंगा में डुबा देने की तैयारी कर ली। पीछे वस्तुस्थिति विदित होने पर डुबाने की अपेक्षा खर्चीले आतिथ्य की व्यवस्था सीमित साधनों में उसने की। भक्ति इसी को कहते हैं, जिसमें अनीति से लड़ना और नीति का समर्थन करना होता है।

शबरी के झूठे बेर भगवान ने खाये थे, पर वह सुयोग बना तब, जब उस भीलनी ने मातंग ऋषि के आश्रम का समीपवर्ती रास्ता साफ बनाए रखने का व्रत वर्षों निबाहा था।

अर्जुन के घोड़े भगवान ने चलाये, वे सारथी बने। पर कदम उठा तब जब दैन्य, हीनता का भाव मिटाकर विशाल भारत बनने की योजना कार्यान्वित करने के लिए वह तैयार हुआ। बलि के दरवाजे पर भगवान भिक्षा माँगने पहुँचे थे ताकि पृथ्वी पर सुव्यवस्था की स्थापना का अवसर मिल सके। द्रौपदी को उन्होंने लाज बचाने हेतु वस्त्र इसलिए दिया था कि वह इससे पूर्व एक संत को वस्त्र हीन देखकर अपनी आधी साड़ी फाड़ कर दान दे चुकी थी। भगवान दानी तो अवश्य हैं। एक बीज के बदले हर वर्ष हजारों फूल, फल, बीज देते हैं। पर यह होता तभी है जब आरंभ में एक बीज अपने को मिट्टी में मिलाकर गला देने के लिए तैयार होता है। भक्ति और उसके वरदान मिलने की बात इसी प्रकार सोची जा सकती है। मीरा को विष के प्याले और सर्पों के पिटारे से इसलिए बचाया था, कि वह राणा के भयंकर प्रतिबन्धों की चिंता न करते हुए गाँव-गाँव, घर-घर भक्ति का अमृत बाँटने के लिए प्रचार यात्रा पर निकल पड़ी थी।

वीरपुर (गुजरात) के बापा जलाराम को भगवान ने दर्शन भी दिये थे और अखण्ड अन्नपूर्णा भण्डार वाली झोली दी थी, किन्तु यह अनुग्रह पाने से पहले जलाराम यह व्रत निभाते रहे थे कि वे दिन भर खेत पर काम करेंगे और पत्नी सत्पात्रों को तब तक भोजन पकाती खिलाती ही रहेगी जब तक घर में अनाज रहे। भगवान उदार तो हैं पर हैं उन्हीं के लिए जो प्रामाणिकता और उदारता की कसौटी पर खरे सिद्ध हो चुके। छल करने वालों के लिए उनका “छलिया” नाम भी प्रसिद्ध है। दुष्टों के दमन में उनका “रुद्र” रूप ही परिलक्षित होता है।

भगवान का दृश्य और प्रत्यक्ष रूप विराट् ब्रह्म ही है, जिसे अर्जुन, यशोदा, कौशल्या, काकभुशुण्ड जी आदि ने देखा था। इसे विश्व उद्यान या जनता-जनार्दन भी कह सकते हैं। लोक सेवा के रूप में भक्ति की यथार्थता का परिचय जिस प्रकार दिया जा सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं।

सुदामा के पैर धोकर भगवान ने पिये थे। भृगु की लात सीने पर खाई थी। यह ब्राह्मण की गरिमा को अपने से बड़ी बताने के उद्देश्य से भगवान ने किया था। ब्राह्मण वे हैं, जो गृहस्थी संभालते हुए क्षेत्रीय सेवा साधना की योजना में संलग्न रहते हैं और अपना निर्वाह अपरिग्रही की तरह करते हैं। साधु, ब्राह्मण वर्ग का वह पक्ष है जो विरक्त वानप्रस्थ रहकर परिव्राजक की तरह अलख जगाता-वायु की तरह प्राण संजोता और बादलों की तरह सद्विचारों का अमृत बरसाता है। इस वर्ग को श्रेष्ठ, पूज्य और भगवान के अधिक समीप इसलिए माना गया है कि वे भगवान के परमार्थ परक प्रयोजनों में निरन्तर लगे रहते हैं, अपने स्वार्थ साधन को सर्वथा भुलाये रहते हैं।

भगवान की भक्ति में घाटा उन्हें पड़ता है जो पूजा पाठ का दाना बिखेर कर चिड़ियों की तरह देवी देवताओं को बहकाने फँसाने में लगे रहते हैं। किन्तु जिन्हें सेवा धर्म प्रिय है, जो लोक सेवा को भगवान का अविच्छिन्न अंग मानते हैं, वे जितना बोते हैं उससे अनेक गुना पाते हैं। मक्का का एक बोया हुआ दाना हजारों मक्का के दानों का समुच्चय बनकर वापस लौटता है। इसी प्रकार भक्ति का वास्तविक स्वरूप यदि सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के रूप में चरितार्थ किया जाय तो भक्त भगवान के प्राणप्रिय बनते हैं। नारद कभी-कभी विष्णुलोक जा पहुँचते थे। यह छूट इन्हें इसलिए मिली थी कि वे भक्ति प्रचार के लिए, धर्म विस्तार के लिए निरन्तर भ्रमण करते रहते थे। ढाई घड़ी से अधिक एक स्थान पर खड़े न होते थे। भगवान बुद्ध को मनुष्य होते हुए भी भगवान कहलाने का श्रेय इसलिए मिला कि संसार में फैले हुए अभाव को मिटाने और सर्वत्र धर्मचक्र प्रवर्तन की प्रक्रिया गतिशील करने के लिए अपने को उन्होंने पूर्णतः समर्पित कर दिया। सेवाभावी जहाँ जन समाज का नेतृत्व करता है, वहाँ प्रत्यक्ष और परोक्ष इतने लाभ पाता है जो त्याग की तुलना में हजारों गुने अधिक होते हैं।


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