आमतौर से वाणी से परामर्श और प्रोत्साहन दिये जाते हैं। पर वह क्रम पुराना हो गया। एक मनुष्य साधारणतः इतना स्वर उठा सकता है जिसे सौ मनुष्य आस पास बैठकर सुन सकें। प्राचीन काल में ऐसी ही धर्म गोष्ठियां होती थीं। लाउडस्पीकर तो उस जमाने में थे नहीं। जब से विज्ञान ने यह आविष्कार प्रस्तुत किया। हजारों लाखों की विशाल सभायें होने लगी हैं और अधिक लोगों तक एक ही समय में विचार पहुँचाना संभव हो गया है। जन जागरण के लिए भी इसका प्रयोग हो रहा है और वक्ताओं की सहायक मंडली के रूप में उसका उपयोग पूरी तरह हो रहा है, इसीलिए कहा जाता रहा है कि हर प्रज्ञा मंडल के पास अपना लाउडस्पीकर होना ही चाहिए ताकि न केवल प्रवचन परामर्श वरन् अन्यत्र रहने वाले विशेषज्ञों के गायन तथा संदेश भी सुनाये जा सकें। स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से देहाती स्तर का बोलता रंगीन छोटा सिनेमा भी घर-घर दिखाया जा सकता है। यों चलते फिरते दृश्य तो उसमें नहीं आ सकते।
लाउडस्पीकर की ही भाँति दूसरा और भी सशक्त माध्यम है- प्रेस प्रकाशन। कोई विचारक अपने गंभीर गरिमा भरे विचारों को जन-जन से मिलकर दुहराता रहे यह समय साध्य और स्वल्प परिणाम उत्पन्न करने वाला साधन है। इस प्रयास में चार चाँद लगा देने की प्रतिक्रिया लेखन कार्य से भी हो सकती है। प्रेस उन्हें छाप कर इतने लोगों तक पहुँचा देता है कि प्रचार कार्य का बहुत बड़ा प्रयोजन उससे सधता है।
प्रजातंत्र सिद्धान्त के जन्मदाता ‘रूसो’ ने अपने ग्रन्थ में उस तथ्य को जब उगाकर किया तो पढ़ने वाले इतना ही कहते थे कि कल्पना सुन्दर है, पर व्यावहारिक नहीं। विचारों को शक्ति किसी जमाने में समझी नहीं जाती थी। “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का जंगली कानून ही सब जगह चलता था। पर पीछे वह बात नहीं रही। विचारों की शक्ति भी समझी जाने लगी और लोग उन पर गंभीरता पूर्वक ध्यान भी देने लगे। लेखनी थी तो पहले भी। पर हस्तलिखित क्रम बड़ा मंद और सीमित रहता था। प्रेस प्रकाशन ने उसमें बिजली जैसी गति भर दी।
रूसो प्रतिपादित प्रजातंत्र की पुस्तक के माध्यम से ही ऐसी हवा फैली कि समूचे संसार में हड़कम्प जैसा मच गया। उस हेतु राज्य-क्रान्तियाँ हुई और अधिकाँश देशों में प्रजातंत्र की स्थापना हो गई। जमींदारियाँ, जागीरदारियाँ सभी मिट गयीं। वह प्रवाह अभी भी चल रहा है। प्रजातंत्र का बीजारोपण और उन्नयन अभी भी पिछड़े क्षेत्रों में तेजी से चल रहा है राजतंत्र की जड़ें इस तूफान ने उखाड़ कर फेंक दी।