उस जमाने में राजा दूसरे देशों पर आक्रमण करते और वहाँ का धन वैभव ही नहीं युवा नर-नारियों का अपहरण करके दास-दासियों के रूप में सभी अपने विलास भण्डार भरते थे।
पकड़े हुए गुलामों में एक का नाम था- एण्ड्री। और की तुलना में वह स्वाभिमानी भी था और झगड़ालू भी। सो उसे मालिकों की यह प्रताड़ना सहन न होती और चुप बैठने के साथ भी मन में उधेड़ बुन चलती रहती।
एक दिन अवसर पाकर वह भाग खड़ा हुआ और किसी घने जंगल में जा छिपा। कठिनाई से ही दिन गुजार रहा था कि कोढ़ में खाज की तरह एक और मुसीबत आ टपकी। कहीं से खिसकता हुआ एक शेर उसकी बगल में आ बैठा। बेचारा स्तब्ध रह गया। काटो तो खून नहीं। भागने तक की हिम्मत न कर सका।
शेर ने हमला नहीं किया। वरन् पंजा उठाकर उसकी गोद में रख दिया। एण्ड्री ने हिम्मत करके उसे देखा तो एक बड़ा काँटा चुभा हुआ था। एण्ड्री ने उसे निकाल दिया। खुश होता हुआ शेर वापस जंगल में चला गया।
मुसीबत दोनों पर नये सिरे से बरसी। राजा के नौकरों ने एण्ड्री को ढूँढ़ निकाला और जेल में पहुँचा दिया। उधर शिकारियों के एक दल ने लंगड़े शेर पर घात लगाई और उसे कैद करके राजा के अजायबघर में ठूँस दिया।
एण्ड्री दरबार में पेश हुआ। उन दिनों के कानून के अनुसार भगोड़े गुलामों को एक ही सजा थी- मौत! सो उसे जंगली शेर के पिंजड़े में धकेल देने का फैसला हुआ। उसे उस नये शेर के पिंजड़े में धकेला गया। देर न लगी उसने काँटा निकालने वाले उपकारी को पहचान लिया प्यार से अपना सिर उसकी गोद में रखने लगा।
दर्शक अवाक् थे। भूखा शेर- शिकार को उलटा प्यार करे यह अचंभे की बात थी। किस्सा विदित होने पर सभी ने जाना। हिंस्र पशु तक उपकारी का अहसान मानते हैं। मनुष्यों में जो कृतघ्न हैं उन्हें हिंस्र पशुओं से भी गया गुजरा समझा जाना चाहिए।