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September 1986

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अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युग धर्म निबाहने के लिये बाधित करते हैं।

युग संधि को पूरा होने में अभी 14 वर्ष का समय शेष है। इतनी अवधि राम ने अज्ञातवास में काट ली थी और पाण्डवगण भी निर्वासित स्थिति में रह लिए थे। प्रज्ञा परिजनों को भी इतना समय उसी प्रकार नवसृजन के लिए उत्सर्ग करना चाहिए, जिस प्रकार कि बुद्ध के परिव्राजकों और गाँधी के सत्याग्रहियों ने बिना लोभ-लालच की ओर मन डुलाए कष्ट के दिन हँसते हुए बिताये। क्या करना होगा? इसके लिए अनेक बार बताया जा चुका है कि इस अवधि को गृहस्थ ब्राह्मणों और विरक्त सन्तों की तरह लोक मानस के परिष्कार में, घर-घर अलख जगाने में, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की विचारक्रान्ति में और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के पुण्य-परमार्थ में नियोजित किया जा सकता है। प्रश्न अनुदान-योगदान का है। जिसने इसे स्वीकार कर लिया, उसके लिए समय और अंशदान कोई समस्या नहीं। उसे तो सुदामा के तंदुलों और शबरी के बेरों की तरह कोई भी प्रस्तुत कर सकता है। शरीर से बालू चिपटाकर समुद्र पाटने का दुस्साहस करने वाली गिलहरी से अधिक गई-गुजरी स्थिति में हम में से कोई भी नहीं है। कृपणता तो पापी मन में घुसी रहती है। वही चित्र-विचित्र, बहाने गढ़ती और व्यस्तता असमर्थता की आड़ ढूँढ़ती है।

छोटे बच्चों को स्तनपान, गोदी चढ़ना, कंधे पर बैठना प्रिय लगता है। वे लेमनचूस, टॉफी, चुइंगगम, गुब्बारा, बिस्किट आदि के लिए मचलते हैं। अभिभावक यथा शक्ति उनकी इन इच्छाओं को पूरा करते हुए हर्ष और संतोष भी अनुभव करते हैं। इतना ही नहीं, जब वे बड़े हो जाते हैं, उनके लिए स्कूली ड्रेस, फीस, चिकित्सा, साइकिल आदि का भी प्रबन्ध करते हैं। अधिक समर्थ हो जाने पर उनके विवाह में ढेरों पैसा भी लगाते हैं। व्यवसाय जमाने के लिए पूँजी का प्रबन्ध करते हैं। अगला समय ऐसा भी आता है कि तिजोरी से लेकर प्रतिष्ठा तक सारा वैभव बच्चे को हस्तान्तरित कर देते हैं।

गुरुपूर्णिमा के अवसर पर यह आश्वासन पड़ौसी, संबंधी 24 लाख के लिए न सही, प्राणप्रिय आत्मीयता अनुशासन निबाहने वालों के लिए तो है ही कि उनकी साँसारिक कठिनाइयाँ, समस्याएँ, चिन्ताएँ, आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हम पहले की अपेक्षा अधिक कुछ करते रहेंगे। क्योंकि अपनी पूंजी एवं सामर्थ्य पहले की अपेक्षा कुछ बढ़ी है। दूध पास में न हो तो द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा को खड़िया मिट्टी का दूध पिला देते थे पर जिन नन्द बाबा के यहाँ एक लाख गाएँ थीं। वे अपने कन्हैया को माखन खाने और सखाओं में बाँटने पर रोकथाम क्यों करते? उनने ऐसी कृपणता बरती भी नहीं। अपना मन भी कृपण नहीं है। जिनने लम्बे समय तक संपर्क बनाए रखा है, वे इस तथ्य को जानते भी हैं कि आत्मीयता और उदारता हमारी नस-नस में रक्त प्रवाह की तरह भरी है। इन दिनों हमें विशिष्ट साधना में संलग्न रहना पड़ रहा है। संपर्क की सुविधा में कटौती हुई है। फिर भी इतना निश्चित है कि हम अपनों की पहचान भूले नहीं हैं। किसकी सहायता करनी चाहिए, किसके लिए क्या करना चाहिए, यह वात्सल्य अभी भी टूटा नहीं है। आशा की जानी चाहिए कि प्राणों में घुली यह विशेषता भविष्य में भी ज्यों की त्यों बनी रहेगी। उनमें कमी आने का तो प्रश्न ही नहीं है। शरीर बदलना पड़े, तब भी इस स्थिति में अन्तर आने वाला नहीं है।

मनुष्य पहले अपनी प्रत्यक्ष आवश्यकताओं पर सोचता है और उसी निमित्त तृप्ति और तुष्टि चाहता है। आदर्शों की, कर्तव्यों की बात तो बाद में सूझ पड़ती है। परिजनों को हम बच्चों के रूप में देखते रहे हैं। माताजी कभी चौबीस लाख शिशुओं की, पाँच लाख बालकों की और एक लाख समर्थों की गणना करती हैं तो साथ ही यह भी सोचती हैं कि इनमें से किन के लिए क्या किया जाना चाहिए? किसको क्या दिया जाना चाहिए? इस संबंध में इतना आश्वासन तो हर किसी को दे सकने की अपनी स्थिति है कि वे स्वावलम्बी रहेंगे और सुखी, सुसंस्कारी भी। उनकी हँसी-खुशी में कोई कटौती न कर सकेगा। उनका पुण्य कम पड़ रहा होगा तो हम अपने में से काटकर उसकी पूर्ति करते रहेंगे। रक्ताल्पता की स्थिति में समर्थ अपना रक्त दान करते और आवश्यकता वाले को चढ़ाते हैं। मुसीबत से छुड़ाने के लिये कई लोग कर्ज लेकर, घर बेचकर भी संकट से मुक्ति पायी जाती है। यह स्थिति हमारे परिवार में किसी को न आये और आनी हो तो उसकी किसी अदृश्य प्रकार से क्षतिपूर्ति होती रहे, इसका हम पूरा ध्यान रखेंगे। दिये गये वचनों का अभी तक पालन करते रहे हैं, तो जीवन के इस अन्तिम अध्याय में भी उस पर उँगली न उठने देंगे। रामकृष्ण परमहंस ने इतने वरदान आशीर्वाद दे डाले थे कि उनने जमा खर्च पूरा करने के लिए मरते समय गले के कैन्सर का कष्ट सहन किया था। अपने सामने कोई ऐसा संकट नहीं है। पर यदि हो भी तो अपने बच्चों को सुखी बनाने के लिए, प्रसन्न रखने के लिए हम उत्साह एवं उल्लासपूर्वक सहन करेंगे। अपने आत्मीयों को इस गुरुपर्व पर हमारा सुनिश्चित आश्वासन है कि उन्हें, उनके परिवार को सुखी समुन्नत बनाने में माता जी समेत हम पूरी तत्परता के साथ संलग्न रहेंगे। जो कुछ भी संभव है, उसमें रत्ती भर भी कमी न रखेंगे। इस आधार पर परिजनों में से प्रत्येक अपने उज्ज्वल भविष्य के निर्माण निर्धारण में हमारे परिपूर्ण मार्ग-दर्शन-योगदान की आशा कर सकता है।


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