अन्धकार को दीपक की चुनौती

September 1986

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अन्धकार की अपनी शक्ति है। जब उसकी अनुकूलता का रात्रिकाल आता है तब प्रतीत होता है कि समस्त संसार को उसने अपने अंचल में लपेट लिया। उसका प्रभाव, पुरुषार्थ देखते ही बनता है। आँखें यथा स्थान बनी रहती हैं। वस्तुएँ भी अपनी जगह पर रखी रहती हैं किन्तु देखने लायक विडम्बना यह है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ पड़ता। पैरों के समीप रखी हुई वस्तुयें ठोकर लगने का कुयोग बना देती हैं।

अन्धकार डरावना होता है। उसके कारण एकाकीपन की अनुभूति होती है और रस्सी का साँप, झाड़ी का भूत बन कर खड़ा हो जाता है। नींद को धन्यवाद है कि वह विस्मृति के गर्त में धकेल देती है अन्यथा जागने पर करवटें बदलते वह अवधि पर्वत जैसी भारी पड़े।

इतनी बड़ी भयंकरता की सत्ता स्वीकार करते हुये भी हमें दीपक की सराहना करनी पड़ती है जो जब अपनी छोटी सी लौ प्रज्वलित करता है तो स्थिति में कायाकल्प जैसा परिवर्तन हो जाता है। उसकी धुँधली आभा भी निकटवर्ती परिस्थिति तथा वस्तु व्यवस्था का ज्ञान करा देती है। वस्तु बोध की आधी समस्या हल हो जाती है।

दीपक छोटा ही सही- अल्प मूल्य का सही, पर वह प्रकाश का अंशधर होने के नाते अंधकार के सुदूर फैलाव को चुनौती देता है और निराशा के वातावरण को आशा और उत्साह से भर देता है। इसी को कहते हैं नेतृत्त्व।


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