आत्मा शक्ति है और शरीर साधन। दोनों के सम्मिलित प्रयासों से दो पहिये की गाड़ी की तरह जीवन रथ चलता है। आत्मा की महत्ता कितनी ही बड़ी क्यों न हो, किन्तु वह शरीर साधन के बिना कुछ कर सकना तो दूर अपने अस्तित्व का परिचय तक नहीं दे पाती। दोनों के बिछुड़ते ही मरण सामने आ खड़ा होता है। संसार-क्रम में भी यही बात है। व्यक्ति की गरिमा और महिमा से इन्कार नहीं किया जा सकता। किन्तु यदि साधनों का अभाव हो, तो फिर दीन-हीन, दरिद्र, अनगढ़, पिछड़ेपन और अभावों के कारण स्थिति उपहासास्पद बनी रहती है। बिना अन्न, वस्त्र, आच्छादन के निर्वाह तक नहीं चलता। प्रगति का कोई भी पक्ष अपनाने के लिए साधन-सम्पदा अनिवार्य रूप से चाहिए। मात्र हाथ पैरों के श्रम से तो मनुष्य पेट भरने जितनी रोटी ही कमा सकता है। उद्योग, व्यवसाय जैसे तंत्र खड़े करने में, व्यापक विशालकाय अभियान चलाने में तो जन-शक्ति ही नहीं, साधन शक्ति भी चाहिए।
बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन में प्रधान भूमिका तो भिक्षु भिक्षुणियों की ही रही, पर उनके निर्वाह, निवास एवं यातायात-प्रचार आदि के लिए विपुल साधनों की आवश्यकता पड़ती रही, जिसे बिम्बसार, हर्षवर्धन, अशोक जैसे पुण्यात्माओं से लेकर अंगुलिमाल, अम्बपाली जैसे हेय समझे जाने वालों द्वारा समर्पित किये गये साधनों से पूरा किया जाता रहा। यदि यह सब न जुटा होता, तो भिक्षुओं-परिव्राजकों के लिए महान परिवर्तन की भूमिका निभा सकना तो दूर, जीवित रहने के लिए कन्द-मूल तलाश करने में ही अपना समय गुजारना पड़ता। देश, धर्म और समाज-संस्कृति की सेवा तो वे कर ही कैसे पाते?
राणा प्रताप साधनों के अभाव में एक बार नितान्त हताश हो गये थे। घास की रोटी भी जब बिलाव उठा ले गया, तो अबोध बालिका भूखी मरने लगी। प्रताप का पत्थर जैसा कलेजा मोम जैसा हो गया और वे बादशाह से संधि करके हथियार डाल देने और पराधीनता स्वीकार करने की बात सोचने लगे। बेचारे करते भी क्या? साथी सैनिकों को भी तो अन्न-वस्त्र चाहिए। शस्त्रों की निरन्तर रहने वाली आवश्यकता भी तो पूरी होनी चाहिए, अन्यथा योद्धा मात्र पत्थर फेंक कर तो दुर्दान्त शत्रु का सामना नहीं कर सकता। प्राण त्यागना अपने वश की बात है, वैसा तो चित्तौड़ की रानियों ने भी जौहर के रूप में कर डाला था। पर विजयश्री का वरण करने के लिए, अकेले भुजबल से भी काम नहीं चलता। साथ में सैनिक भी चाहिए। शस्त्र भी और राशन-वाहन भी। इसके बिना कर्त्तव्य निभाना भर हो सकता है, विजय प्राप्त करके दुँदुभी बजाना और जीत का उद्घोष करना संभव नहीं हो सकता। साधनों का भी अपनी जगह महत्व है। विशेषतया तब, जब शरीर सेवा से बढ़कर किसी बड़े अभियान का सरंजाम जुटाना हो तब।