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September 1986

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समृद्धि के समय मित्र तो बहुत बनते हैं। पर उनमें से सच्चा कौन है? यह संकट के समय ही जाना जाता है।

वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों को मिशन का मूर्तिमान संदेशवाहक बनना चाहिए और अपने परिचय क्षेत्र में जो भी मिशन से अवगत परिजन हों, उन्हें जगाना-झकझोरना चाहिए, निष्क्रिय न रहने देकर सक्रियता अपनाने के लिए बाधित करना चाहिए। उन्हें प्रस्तुत प्रज्ञा प्रशिक्षण की महत्ता उपयोगिता समझाते हुए इस सुयोग से लाभान्वित होने के लिए तत्पर करना चाहिए। मिशन की महती आवश्यकता यह है कि बड़ी संख्या में प्राणवान प्रतिभाएँ अग्रिम पंक्ति में खड़ी हो सकने योग्य बनें और नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्राँति के साथ जुड़े हुए अनेकानेक कार्यक्रमों को जादुई फुर्ती के साथ सम्पन्न करें। इसके लिए प्रारंभिक उपाय शाँति कुंज की प्रशिक्षण योजना में उत्साह भरी भागीदारी ग्रहण करना है। आश्रम यों इन दिनों भी भरा रहता है, फिर भी अगले दिनों उसमें वृद्धि होने की ही आशा-अपेक्षा की जाती है।

दूसरा कार्य इसी शृंखला में एक और भी है कि जो भी शिक्षार्थी शाँति-कुँज के एक मासीय प्रज्ञा प्रशिक्षण में सम्मिलित होकर लौटें, वे अपने-अपने यहाँ इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए एक सामयिक पाठशाला प्रशिक्षण सत्र के रूप में चलाएँ। अपने गाँव, नगर अथवा समीपवर्ती लोगों को एकत्रित कर वैसा ही प्रशिक्षण सत्र चलायें जैसे कि बड़े रूप में हरिद्वार में चलता है।

सभी प्रज्ञा पुत्रों के सामने इन दिनों लक्ष्य रहे कि वे अधिक-से-अधिक पौत्र पैदा करें। यहाँ तात्पर्य संतानोत्पादन से नहीं है, वरन् यह है कि जिस प्रकार बुद्ध को आत्म ज्ञान देने वाले बोधि वृक्ष-अश्वस्थ की टहनियाँ काट-काट कर लोग संसार भर में ले गये थे और भक्तजनों ने अपने-अपने यहाँ उसको पाल पोसकर नया वृक्ष खड़ा किया था। ठीक उसी भाँति केन्द्रीय प्रज्ञा-प्रशिक्षण का बोधिवृक्ष लाखों टहनियों में आरोपित किया और पोसा-बढ़ाया जाना चाहिए। यह इसी प्रकार हो सकता है कि ये क्षेत्रीय प्रज्ञा पाठशालाएँ न केवल बौद्धिक शिक्षण की आवश्यकता पूरी करें, वरन् अपने निकटवर्ती दस गाँवों में भी उसका प्रभाव उत्पन्न करें।

एक छोटा जनरेटर भी दस गांवों को रोशनी दे सकता है। एक मँझोला बाँध दस गाँवों की भूमि सींचकर हरी-भरी कर सकता है। तब कोई कारण नहीं कि एक प्रज्ञा पाठशाला छोटे, किन्तु सुदृढ़ संगठन के रूप में परिणत न हो सके और निर्धारित दस-सूत्री कार्यक्रम की शानदार ढंग से पूर्ति न कर सके।

सघन क्षेत्रों में तीन-तीन मील चारों दिशाओं में परिधि बना लेने पर उसमें छोटे-बड़े दस गाँव आसानी से आ जाते हैं। विरल आबादी में कम गाँव भी हो सकते हैं। तीन मील का वर्ग दायरा या दस गाँव इन दिनों में से जो सुविधाजनक पड़ता हो, उस क्रम को अपना लेना चाहिए। कस्बे और नगरों में गाँवों का स्थान मुहल्ले ले सकते हैं। दस मुहल्लों का एक यूनिट बना कर काम करते रहा जाय, तो बेकाबू बिखराव की अपेक्षा यह सुनियोजित कहीं अच्छा रहेगा।

यह प्रक्रिया इस प्रकार से सुनियोजित है कि उस आधार पर किसी क्षेत्र या समुदाय को निश्चित रूप से पूरी तरह सुगठित किया जा सकता है। बन्दर जैसी छलाँगें लगाते हुए इस पेड़ से उस पेड़ पर जा पहुँचना कौतुक-कौतूहल भर है। इसमें आत्मश्लाघा की झलक है कि हमने इतने विस्तार में उछल कूद की। किन्तु ऐसे कार्य पानी के बबूले की तरह क्षण उभरते और दूसरे ही क्षण तिरोहित हो जाते हैं।


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