राजघाट पर उनकी समाधि (kahani)

September 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

खाली पात्र

दो मिट्टी के बर्तन आंगन में रखे थे। एक का मुँह ऊपर था दूसरे का नीचे। वर्षा हुई। जिसका मुँह ऊपर था वह बर्तन पानी से भर गया। जिसका नीचे था वह खाली रह गया। खाली पात्र साथी को भरा देखकर ईर्ष्या से कुड़मुड़ाया और उससे लड़ने लगा। वर्षा फिर आई लड़ने वाले से कहा- प्रिय, लड़ो मत, अपना मुँह ऊपर कर लो, तुम्हारा पेट भी वैसे ही भर दूँगी जैसा साथी का भरा है।

इस संसार में सभी प्रकार के मनुष्य हैं। बुरे ही नहीं, भले भी। चुम्बक लौह कणों को खींचता है। धातुओं के पर्वत इसी आकर्षण शक्ति के आधार पर खड़े होते हैं। गाँधी जी पर प्राण न्यौछावर करने वाले और पूरी तरह उनके आदेशों पर चलने वाले हजारों नेता ही नहीं, लाखों सत्याग्रही स्वयंसेवक भी थे। यदि इतना बड़ा परखा हुआ समुदाय साथ में न होता तो खादी आन्दोलन, सर्वोदय, हरिजन सेवा, प्राकृतिक चिकित्सा जैसे अनेक रचनात्मक कार्य भी वे स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही किस प्रकार चला पाते? इन्हें चलाने के लिए समर्थ प्रतिभाओं को जुटाना अनिवार्य रूप से आवश्यक था, सो जुट भी गया। अन्यथा अकेले गाँधी जी किस सीमा तक क्या कर पाते, यह आकलन करना मुश्किल है।

जौहरी की दुकान पर यहाँ-वहाँ टकराते हुये रत्न और स्वर्ण आभूषण पहुँचते हैं। गाँधी जी के पास हर काम के लिए उपयुक्त व्यक्ति पर्याप्त संख्या में पहुँच गये थे। एक ब्राह्मणी ने अपने तीन पुत्रों को ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मचारी बनाया और उन्हें परमार्थ के लिए सौंप दिया। विनोबा, बालकोबा, शिवोबा ऐसे ही साथी थे जो गाँधी जी को ऊँचे वेतन पर नहीं, समर्पित स्थिति में मिले थे। विनोबा ने सर्वोदय भूदान सँभाला। वे ब्रह्म विद्या मंदिर भी चलाते थे और वामन अवतार की तरह अपने डगों से समूची भारत भूमि को नापते फिरे थे। बालकोबा को उरली काँचन का प्राकृतिक चिकित्सालय सौंपा तो उनने बिना रुचि परिवर्तन की बात सोचे सारी जिन्दगी उसी काम में खपा दी। शिवोबा (शिवाजी भाऊ) भी विनोबा के ही पद चिन्हों पर चले। हरिजन सेवा के लिए वरिष्ठ इंजीनियर ठक्कर बापा को एक काम थमाया गया, तो दूसरी ओर सिर उठाकर देखने की फुरसत ही न मिली।

गाँधी जी समुद्र जितने गहरे और हिमालय जितने ऊँचे थे। उनके व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व का उल्लेख यहाँ कर सकना संभव नहीं, पर उस सब का सार तत्व यहाँ से आरम्भ होता है कि उनने वकालत की शान-शौकत को लात मार कर अपनी समूची प्रतिभा को जन सेवा के लिए समर्पित कर दिया। बदले में जो उनने पाया वह भी कम नहीं था। उनके निमित्त श्रद्धा व्यक्त करने के लिए हजारों शानदार संस्थाओं और इमारतों के नामकरण हुये हैं। राजघाट पर उनकी समाधि के सामने अभी भी उतने आँसू और फूल बरसते हैं मानो देवता आरती उतार रहे हैं। धन्य है, ऐसे जीवन जो असंख्यों के सेवक और जन नेता बन कर संसार में आदर्शवादी लहर चला सके और पीछे वालों के लिए एक अमर गाथा छोड़ सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118