Quotation

September 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

महान-विराट् और उत्कृष्ट जीवन का नाम ही ईश्वर है। मनुष्य उसी का छोटा किन्तु दिव्य अंग है। वह स्वप्न नहीं है। न विडम्बना न दुर्भाग्य। वह ईश्वर का सब से सुन्दर और दिव्य वरदान है। वह अद्भुत है।

अपने भीतर प्रवेश करो। गहरे और गहरे। देखोगे कि जीवन प्रेम, आदर्श और आनन्द से भरा पूरा है।

साधु वास्वानी

प्रज्ञा मिशन को एक लाख नेताओं की आवश्यकता है। यह हर हालत में पूरी की जानी है, पर इसके लिए गायन-वादन, प्रवचन-पौरोहित्य जैसे उपचार श्रृंगार की तरह आवश्यकता तो है, पर इतने भर से काम नहीं चल सकता। इन योग्यताओं को प्राप्त करके लोगों को एकत्रित-आकर्षित किया जा सकता है और अपने प्रतिपादनों के सहारे उन्हें सहमत भी किया जा सकता है, किन्तु कठिनाई तब पड़ेगी, जब उन्हें भी अपने साथ लेने और कुछ महत्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए त्याग करने एवं साहस दिखाने के लिए कहा जायेगा। श्रद्धा के अभाव में वे परिस्थितियाँ अनुकूल होते हुए भी बगलें झाँकेंगे और कुछ ऐसे कदम न उठा सकेंगे, जिससे कारगर प्रयोजनों की सिद्धि हो, कर्त्ता एवं उसके निर्माता का प्रभावी संगठन खड़ा करने का श्रेय मिल सके।

पेड़ की सुन्दरता की कितनी ही कल्पना क्यों न की जायं, पर उसे प्रत्यक्ष देखने के लिए जड़ों में खाद-पानी पहुँचाने की सुव्यवस्था होनी चाहिए। इसके बिना पोली नेतागिरी दिखावटी रहेगी और आवेश उतरते ही ठंडी हो जायगी।

नेता के सेवा कार्यों का वर्णन होता है। उनके क्रिया-कलापों की गाथा गाई जाती है। पर ऐसा वस्तुतः बन सकना या कर सकना तभी संभव हो सकेगा, जब व्यक्ति निजी जीवन में दो शर्तों का निर्वाह करे। एक यह कि उसे चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से परिष्कृत एवं प्रामाणिक होना चाहिए। उसकी चादर पर ऐसे दाग-धब्बे लगे न हों, जिस पर हर किसी की आँख जाय और उँगली उठे। दूसरा यह कि उसके क्रिया-कलाप में सेवा भावना गुँथी होनी चाहिए। उसे प्रचार कार्य के अतिरिक्त ऐसे पुण्य-परमार्थ भी अपनाने चाहिए, जिसके सहारे उदारता, सज्जनता एवं आदर्शवादिता प्रकट होती हो। जिनके पास न चरित्र की पूँजी है और न जिनकी सेवा-साधना का कोई इतिहास, वे तो खेतों में खड़े हुए काग भगौओं की तरह हैं, जो दूर से देखने पर रखवाले जैसे प्रतीत होते हैं, पर निकट जाने पर प्रतीत होता है कि यह तो लकड़ी के ढाँचे पर घड़े का सिर और फटे कपड़े की पोशाक पहने हुए है। जिन्हें सच्चे अर्थों में किसी बड़े क्षेत्र का नेता बनना है, उन्हें चरित्र निष्ठा के अतिरिक्त सेवा प्रयोजनों के लिए समयदान-अंशदान की बढ़ी-चढ़ी उदारता भी दिखानी चाहिए। उपयोगी सेवा कार्यों में बिना किसी आमंत्रण के स्वयं दौड़ कर भागीदार बनना चाहिए। वस्तुतः चरित्रनिष्ठा और सेवा भावना एक दूसरे से पूरी तरह गुँथे हुए हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ एक होगा, वहाँ दूसरा भी अनायास ही साथ हो जाएगा। इनमें से किसी को भी एकाकी नहीं माना जा सकता। लोक सेवा और चरित्र निष्ठा दोनों साथ हों तो वह नेतृत्व वास्तविक एवं प्रभावशाली जनोपयोगी नेतृत्व कहलाता है। जहाँ इस युग्म का अभाव है, वहाँ मात्र अभिनेता का तमाशा भर है। आवश्यकता है आज सही अर्थों में परमार्थ परायण नेताओं की जो मुखौटे लगाये अभिनेताओं की भीड़ में अलग से पहुंचाने जा सकें, जिनके पीछे चलने के लिए अगणित व्यक्ति सहर्ष तैयार हो जायँ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118