संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ जिसकी आलोचना या निंदा न की गई हो।
धर्मोपदेशकों, संत, सदाचारी परमार्थी, पुण्यात्माओं की भक्ति भावना को जितना महत्व और सम्मान दिया जाता है उससे किसी भी प्रकार सुधारकों की गरिमा कम नहीं है। वे अगर अपना काम मुस्तैदी से न करें तो फिर समझना चाहिए कि वही स्थिति फिर आ पहुँचेगी जिसमें राम ने ऋषि आरण्यकों में अस्थि समूहों के पर्वत खड़े देखे थे और तपसी वेष धारी भगवान ने भुजा उठा कर प्रतिज्ञा की थी “निशिचर हीन करहुँ महि”। समाज सुधारकों को इसी वर्ग के रघुवंशी, तेजस्वी, क्षत्री कहा जा सकता है जो अपनी जान हथेली पर रख कर अनीति से टकराते और उसे उखाड़ फेंकने के उपरान्त दम लेते हैं।
भारत दो हजार वर्ष तक इसलिए पराधीन नहीं रहा कि यहाँ योद्धाओं या शस्त्रों की कमी थी। बात यह हुई कि समाज को कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं, अन्धविश्वासों ने जराजीर्ण कर दिया था और वह आक्रान्ताओं के छोटे-मोटे आघात भी न सह सका।
सामाजिक कुरीतियों में कितनी तो ऐसी हैं जिनकी भयंकरता किसी प्राणघातक महामारी से कम नहीं आँकी जा सकती। बाल विवाह, बहु विवाह, पर्दा प्रथा, स्त्रियों को पालतू पशुओं की श्रेणी में रखा जाना वह अनर्थ है जिसके कारण आधी जनसंख्या की स्थिति अपंग असहाय जैसी हो जाती है और अविकसित नारियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक योग्य सन्तानें जनती जाती हैं। यह पतन का एक क्रमबद्ध सिलसिला है जिसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए। दहेज, खर्चीली शादियाँ, वर विक्रय, कन्या विक्रय, वधू दाह, वेश्यावृत्ति इन्हीं कुरीतियों का प्रतिफल है। मध्यकाल में तो विधवाओं के भरण पोषण के दायित्व से बचने के लिए परिवार वाले उन्हें सती हो जाने के लिए उकसाते थे और नशा पिलाकर अर्धमूर्छित स्थिति में पति की चिता पर धकेले देते थे। यह अनाचार राजाराम मोहनराय ने अपनी भावज की लोमहर्षक मृत्यु के रूप में देखा था। उनने प्रतिज्ञा की कि इस नारी वध को वे किसी भी कीमत पर रुकवा कर रहेंगे। इसके लिए उनने साहित्य लिखा, आन्दोलन चलाया और सरकारी सहायता लेकर कानून बनवाया। सती प्रथा विरोध और विधवा विवाह की मान्यता उन्हीं के भागीरथ प्रयत्नों से संभव हो सकी।
मात्र अनीति रोकना ही काफी नहीं, उसका उत्तरार्ध सत्प्रवृत्तियों की स्थापना से बनता है। महर्षि कर्वे ने नारी शिक्षा के लिए ऐसा कारगर प्रयत्न किया कि न केवल महाराष्ट्र में वरन् समूचे देश में उसकी हवा फैली। जयपुर वनस्पति में हीरालाल शास्त्री ने बालिका विद्यालय की शानदार स्थापना की जो अब विश्वविद्यालय स्तर तक जा पहुँचा है। अलीगढ़, सासनी की एकाकी महिला लक्ष्मी देवी ने जंगल में वीरान पड़ी भूमि को समतल बनाकर कन्या गुरुकुल बनाया। गांवों से कन्याओं को लाने पहुँचाने, पढ़ाने तक का आद्योपान्त कार्य उनने किया और कन्या शिक्षा की लहर एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँची। प्रयत्न कर्त्ताओं का ही प्रभाव है कि जो कार्य कभी निरन्तर असंभव प्रतीत होते थे वह सरल और संभव ही नहीं व्यापक भी हो गये। आज की बढ़ती नारी शिक्षा हेतु श्रेय इन्हीं शुभारंभ करने वाले नर-रत्नों को दिया जा सकता है।
दूसरी भयावह कुरीति है जाति-पाँति के आधार पर ऊँच नीच की मान्यता। यह सवर्ण और असवर्णों में अपने अपने ढंग से सर्वत्र फैली हुई है। परिणाम यह हुआ है कि एक समाज हजारों टुकड़ों में बंट कर रह गया। जाति-पाँति के साथ सम्प्रदायवाद और भाषावाद का जहर भी घुल कर त्रिदोष जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी।