पिछड़ों की सेवा के लिए समर्पित कागाबा

September 1986

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जापान का एक मेधावी छात्र कागाबा टोकियो विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। घर के लोग उसे बैरिस्टर बनने का आग्रह कर रहे थे। राजनीति के क्षेत्र में कुछ संपर्क था, सो वे उसे चुनाव लड़ने और मिनिस्टर बनने की योजना विस्तार पूर्वक समझा रहे थे। एक साथी मित्र ने अपने मिल में साझीदार बनने का प्रस्ताव किया। पूँजी लगाने के बदले वे मिल की व्यवस्था सँभालें, इसके लिए मित्र का पूरा परिवार सहमत था, और भी ऐसे ही कोई बड़े प्रस्ताव थे, जिनके सहारे वे कोई बड़े अफसर, व्यापारी, राजनेता, आदि बन सकते थे। सुखी और सम्पन्न बनाने की सलाह तथा सहायता देने के लिए कितने ही मित्र-सम्बन्धी अपनी तत्परता दिखा रहे थे। उनका व्यक्तित्व हर दृष्टि से आकर्षक जो था।

कागाबा की अपनी और कुछ निजी महत्वाकाँक्षा तथा योजना थी। वे दुखियारों का सहारा बनना चाहते थे। धनी अधिकारी बनने पर भी जब पेट ही भरना है, तो उतना सेवा कार्य करते हुए भी संभव हो सकता है। एक ओर महत्वाकाँक्षाओं के पर्वत थे। दूसरी ओर करुणा, जो चुपके से उन्हें सलाह दे रही थी कि किसी की मत मानो, आत्मा की आवाज सुनो। कितने दुखियारों का सहारा बन सकते हो, तुम जरा इसका भी विचार करो। जीवन का मूल्य समझो और इसे अमीरी के लिए न्यौछावर न करो। कागाबा ने आत्मा की पुकार सुनी ही नहीं, स्वीकारी भी। उनने सत्परापर्शदाताओं को निरुत्तर कर दिया।

कागाबा ने अपने नगर का कोना-कोना छान मारा। एक तिहाई हिस्सा ऐसा था जिनमें कंगाली, कोढ़ी, अपंग, भिखारी स्तर के लोग रहते थे, उन्हीं में कुछ उठाईगीरे, शराबी, जुआरी भी शामिल थे। फूस की झोपड़ियों में यह लोग रहते थे और इस तरह का जीवन बिताते थे, मानो साक्षात नरक में ही रह रहे हों। दुर्गन्ध का साम्राज्य था। आये दिन चोरी से लेकर हत्याओं तक की घटनाएँ उस क्षेत्र में होती रहती थीं। आफत की मारी कुछ अनपढ़ महिलाओं ने गुजारे के लिए वेश्यावृत्ति भी अपना रखी थी। सम्पन्न लोगों के महल अलग थे पर इन कंगलों की अपराधी बीमारों की संख्या भी कम न थी।

कागाबा ने निश्चय किया कि वे इसी मुहल्ले में रहेंगे और अपना कार्यक्रम इन दुखियारों की सेवा करते हुए जीवन बिताने का बनायेंगे। सेवा करने के हजार उपाय थे जो बिना पैसे के, शरीर सेवा या सत् परामर्श देने से भी हो सकते थे। उनकी सूची और विधि भी उनने बना ली, पर अपने निर्वाह का प्रश्न शेष रहा। इसके लिए उनने परिवार तथा मित्र समुदाय से भी कुछ न लेने का निश्चय किया। उनने कुछ बच्चों को पढ़ाने के लिए ट्यूशन ढूँढ़ ली जो उन्हें आसानी से मिल भी गई। अपनी झोपड़ी, खाना पकाने का थोड़ा-सा सामान, एक सस्ता सा बिस्तर कुल यही थी उनकी पूँजी। निजी कामों में सोने समेत आठ घंटे से अधिक न लगाते। शेष सारा समय उन जीवित भूत-पलीतों की सेवा में रुचिपूर्वक बिता देते।


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